Sunday, July 19, 2009

पश्चिमी मीडिया के दुष्प्रचार का शिकार भारत

पिछले महीनों में ब्रिटेन से निकलने वाले समाचार पत्रों न्यू सांइटिस्ट और न्यू स्टेट्समेन ने भारत के संबंध में व्याप्त रुढ़िबद्ध धारणा को चुनौती देते हुए विशेषांक छापे हैं।
जनवरी में न्यू स्टेट्समेन ने अपने ग्राहकों को यह प्रस्ताव दिया कि आपको नई महाशक्ति के आर्थिक उछाल से लेकर सेक्स क्रांति तक जानने की आवश्यकता हैं इसके पूर्व न्यू साइंटिस्ट ने अधिक मर्यादित तरीके से यह बताने परमाणु शक्ति व सेटेलाईट जैसी अत्याधुनिक तकनीके उपलब्ध हैं, बिल्कि वह उनका उपयोग अपने समाज के निर्धनतम लोगों के विकास के लिए भी कर रहा हैं। उसने इस बात की ओर भी इंगित किया कि भारत के राष्ट्रपति जो कि एक मुस्लिम है, अंतरिक्ष और परमाणु विज्ञान दोनों विषयों के विशेषज्ञ भी हैं।
इस तरह के प्रकाशनों ने भारत से संबंधित उस रुढ़िबद्ध धारणा को चुनौती दी है जिसके अनुसार भारत एक पिछड़ा, अंधविश्वासी एवं गरीबी आदि व्याधियों से ग्रसित राष्ट्र है। परन्तु हमारे पास इस बात के वास्तविक प्रमाण मौजूद हैं कि किस प्रकार नई तकनीक दूरस्थ समुदायों को बजली, प्राथमिक शिक्षा, इन्टरनेट इत्यादि उपलब्ध करवा रही हैं । परन्तु विश्व के कई हिस्सों खासकर गरीब देशों में जो कुछ घटित हो रहा है उसकी एक संतुलित तस्वीर प्रस्तुत करना अभी भी एक गतिशील संघर्ष ही है।
कुछ दिनों पूर्व दी इंडिपेंडेंट ने एक बड़ा लेख छापा था जिसमें यह दावा किया गया था कि भारत को किसी भी यूरोपियन देश की बनिस्बत अत्यधिक ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन के लिए दोषी ठहराया जा सकता है। इस वक्तव्य को अगर इसके वास्तविक स्वरुप में ग्रहण करें तो यह वक्तव्य बहुत ही बेचैन कर देने वाला प्रतीत होता हैं। पर गौर करने पर यह तर्क ही ढेर हो जाता है। तो मैंने समाचार पत्र को इस बिन्दु की ओर इशारा करते हुए लिखा, एक अरब से ज्यादा की जनसंख्या वाले भारत की तुलना किसी एक यूरोपीय देश से नहीं बल्कि संपूर्ण यूरोप से करना चाहिए।
उत्तरी अमेरिका के निवासियों की तुलना में भारत का नागरिक मात्र १० प्रतिशत कार्बन डाई ऑक्साइड उत्पन्न करता हैं। वास्तविकता यह भी है कि एक ब्रिटिश बच्चा, जी-८ देशों के अतिरिक्त अन्य किसी भी देश के बच्चे की बनिस्बत विश्व के प्राकृतिक संसाधनों का ८ गुना ज्यादा उपभोग करता है।
हाल ही में इसी समाचार पत्र ने घोषणा की कि दो बड़े वैज्ञानिकों के अनुसार अधिक जनसंख्या इस ग्रह के लिए खतरा हैं। इन दोनों वैज्ञानिकों का यह दृढ़ विश्वास है कि यह एक साधारण सा सच है, जिसकी राजनीति के कारण या तो अनदेखी की गई है या महत्व नहीं दिया गया। इस आक्षेप के प्रत्युत्तर में मैंने एक लिफाफे के पीछे कुछ गणनाएं की और इस संशोधन के साथ समचार पत्र के कार्यालय को भेजा। अगर आप सारी विश्व की जनसंख्या को अमेरिका में भेज दें तो वहां पर जनसंख्या का घनत्व हालैंड की जनसंख्या के घनत्व जितना होगा और डच निवासियों के पास अपने मनपसंद ट्यूलिप (एक प्रकार के फूल) उगाने के लिए भरपूर स्थान फिर भी शेष रहेगा।
अब भारत के बारे में कुछ अच्छे समाचार ? भारत के कुछ बड़े शहरों में अब यह कानूनन अनिवार्य हो गया है कि वहां पर चलने वाले वाहन सी.एन.जी. ही इंर्धन के रुप में इस्तेमाल कर सकेंगग। इससे श्वास संबंधी रोगों में जबरदस्त कमी आई हैं । पर इस संदर्भ को आपने कभी ब्रिटिश अखबारों या टेलीविजन में होते देखा है? निश्चित तौर पर नहीं, क्योंकि किसी को भी कार उद्योग की उच्चाकांक्षा को चुनौती देने का मौका है ही नहीं।
भारत द्वारा ऐसे व्यापक पर्यावरणीय कानूनों का निर्माण कर पाना इसलिए संभव हो पाया है कि यहां का सर्वोच्य न्यायालय इसमें सीधे हस्तक्षेप करता है। और जिसके पास काफी मात्रा में शक्तियां निहित हैें।
पर्यावरण के मसले पर भी भारत कम राजनीतिक स्तर पर तो एक विश्व नेता है। १९७२ में सम्पन्न संयुक्त राष्ट्रसंघ प्रथम पर्यावरणीय सम्मेलन में भागीदारी करने वाली भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी एक मात्र राष्ट्र प्रमुख थी। १९८१ में आयोजित नए एवं पुर्नसंशोधित की जा सकने वाली ऊर्जा से संबंधित संयुक्त राष्ट्र संध के सम्मेलन में भी जिन तीन राष्ट्रप्रमुखों ने भाग लिया था इंदिरा गांधी उनमें से भी एक थीं। १९७० और १९८० के दशकों में पर्यावरण और विकास को लेकर भारत के सरोकारों में और भी परिपक्वता आई। प्रोजेक्ट टाइगर ओर उनके नए राष्ट्रीय पार्क इसी के उदाहरण हैं। पर रुढ़ीबद्ध धारणा अपनी जगह बनी हुई है। अगर व्यक्ति सामूहिक रुप से इसका विरोध करेंगे तभी इस प्रवृत्ति में परिवर्तन आ सकता है, क्योंकि ज्यादातर लोग तो अनजान हैं और उन्हें निहित स्वार्थो, राजनीतिक स्वार्थ और सामुहिक असंयम द्वारा बरगलाया जाता है।
अगर हम पश्चिम के निवासी स्वयं को इस बात के लिए संतुष्ट कर लेंगे कि तथाकथित विकासशीत विश्व के लोगों को अधिक जनसंख्या, भू-मंडलीय तापमान वृद्धि, महामारियेां और अन्य प्रमुख समस्याओं के लिए दोषी ठहराया जा सकता है तो भी यह उनके (विकासशील देशों) पर ही निर्भर है कि वे अपना रास्ता बदलें, बजाए इसके की हमें उनके लिए कुछ करने की आवश्यकता पड़े। वास्तव में प्रभावशाली उपभोक्तावादी औद्योगिक विश्व और गैर औद्योगिक देशों के कुछ शहरी क्षेत्र हमारे इस वर्तमान भूमंडलीय संकट के लिए जिम्मेदार हैं। उनके लिए इस तरह की रुढ़िबद्ध धारणाओं को बल देकर हमें इस बात का विश्वास दिला देना आसान है, जिससे कि हम सारा दोष उन विकासशील देशों पर मढ़ दें और हम सब अपनी जीवनचर्या में किसी भी प्रकार के परिवर्तन को प्रवृत्त ही न हों।

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