Tuesday, July 21, 2009

PRAHLAD SINGH PATEL START NASHA MUKTI ABHIYAN IN NARSINGHPUR









Monday, July 20, 2009

India key player for global food security

New Delhi (IANS) Praising India's rich knowledge in agriculture, Secretary of State Hillary Clinton on Sunday said India is a key player in helping the US achieve global food security and end hunger.
"President Obama and I had a signature issue - food security and ending hunger. India is well placed to help us (achieve it)," Clinton said at the National Agricultural Science Centre that is part of the Indian Agricultural Research Institute (IARI) here.
"The problem of chronic hunger and malnutrition is a huge issue. (Currently) one billion people are hungry in the world. It can undermine peace and instability can follow. We believe that world has the resources to feed all people.
"I am delighted to be in this prestigious institute and partner India in agriculture. India's experience in agriculture is unsurpassable. With only three percent of the land area, it feeds 17 percent of (global) people. India's leadership is crucial," she added
She said the US administration is happy to partner India in agriculture.
"Agriculture is a pillar of our five pillar discussion (with India). We want to expand our partnership to produce better seeds, grains, farm technology. There is no limit to new explorations in agriculture with India. I am committed to this effort," Ms. Clinton said while alluding to the US role in spurring a green revolution in India in the 1960s that was marked by the introduction of high-yield seed varieties leading to enhanced farm productivity.
She said bio-energy, bio-security, bio-diversity are key areas. The effort is to "end hunger". She also said that India can play a great role in food processing industry.
Ms. Clinton was received at the institute by Agriculture Minister Sharad Pawar. Enhanced cooperation in agriculture will be one of the areas of discussions between Clinton and External Affairs Minister S.M. Krishna Monday.

हिन्दी पत्रकारिता की कहानी

हिन्दी पत्रकारिता की कहानी भारतीय राष्ट्रीयता की कहानी है। हिन्दी पत्रकारिता के आदि उन्नायक जातीय चेतना, युगबोध और अपने महत् दायित्व के प्रति पूर्ण सचेत थे। कदाचित् इसलिए विदेशी सरकार की दमन-नीति का उन्हें शिकार होना पड़ा था, उसके नृशंस व्यवहार की यातना झेलनी पड़ी थी। उन्नीसवीं शताब्दी में हिन्दी गद्य-निर्माण की चेष्ठा और हिन्दी-प्रचार आन्दोलन अत्यन्त प्रतिकूल परिस्थितियों में भयंकर कठिनाइयों का सामना करते हुए भी कितना तेज और पुष्ट था इसका साक्ष्य ‘भारतमित्र’ (सन् 1878 ई, में) ‘सार सुधानिधि’ (सन् 1879 ई.) और ‘उचितवक्ता’ (सन् 1880 ई.) के जीर्ण पष्ठों पर मुखर है।
हिन्दी पत्रकारिता में अंग्रेजी पत्रकारिता के दबदबे को खत्म कर दिया है। पहले देश-विदेश में अंग्रेजी पत्रकारिता का दबदबा था लेकिन आज हिन्दी भाषा का परचम चंहुदिश फैल रहा है।

भारतीय भाषाओं में पत्रकारिता का आरम्भ और हिन्दी पत्रकारिता
भारतवर्ष में आधुनिक ढंग की पत्रकारिता का जन्म अठारहवीं शताब्दी के चतुर्थ चरण में कलकत्ता, बंबई और मद्रास में हुआ। 1780 ई. में प्रकाशित हिके (Hickey) का "कलकत्ता गज़ट" कदाचित् इस ओर पहला प्रयत्न था। हिंदी के पहले पत्र उदंत मार्तण्ड (1826) के प्रकाशित होने तक इन नगरों की ऐंग्लोइंडियन अंग्रेजी पत्रकारिता काफी विकसित हो गई थी।
इन अंतिम वर्षों में फारसी भाषा में भी पत्रकारिता का जन्म हो चुका था। 18वीं शताब्दी के फारसी पत्र कदाचित् हस्तलिखित पत्र थे। 1801 में हिंदुस्थान इंटेलिजेंस ओरिऐंटल ऐंथॉलॉजी (Hindusthan Intelligence Oriental Anthology) नाम का जो संकलन प्रकाशित हुआ उसमें उत्तर भारत के कितने ही "अखबारों" के उद्धरण थे। 1810 में मौलवी इकराम अली ने कलकत्ता से लीथो पत्र "हिंदोस्तानी" प्रकाशित करना आरंभ किया। 1816 में गंगाकिशोर भट्टाचार्य ने "बंगाल गजट" का प्रवर्तन किया। यह पहला बंगला पत्र था। बाद में श्रीरामपुर के पादरियों ने प्रसिद्ध प्रचारपत्र "समाचार दर्पण" को (27 मई, 1818) जन्म दिया। इन प्रारंभिक पत्रों के बाद 1823 में हमें बँगला भाषा के समाचारचंद्रिका और "संवाद कौमुदी", फारसी उर्दू के "जामे जहाँनुमा" और "शमसुल अखबार" तथा गुजराती के "मुंबई समाचार" के दर्शन होते हैं।
यह स्पष्ट है कि हिंदी पत्रकारिता बहुत बाद की चीज नहीं है। दिल्ली का "उर्दू अखबार" (1833) और मराठी का "दिग्दर्शन" (1837) हिंदी के पहले पत्र "उदंत मार्तंड" (1826) के बाद ही आए। "उदंत मार्तंड" के संपादक पंडित जुगलकिशोर थे। यह साप्ताहिक पत्र था। पत्र की भाषा पछाँही हिंदी रहती थी, जिसे पत्र के संपादकों ने "मध्यदेशीय भाषा" कहा है। यह पत्र 1827 में बंद हो गया। उन दिनों सरकारी सहायता के बिना किसी भी पत्र का चलना असंभव था। कंपनी सरकार ने मिशनरियों के पत्र को डाक आदि की सुविधा दे रखी थी, परंतु चेष्टा करने पर भी "उदंत मार्तंड" को यह सुविधा प्राप्त नहीं हो सकी।


हिंदी पत्रकारिता का पहला चरण
1826 ई. से 1873 ई. तक को हम हिंदी पत्रकारिता का पहला चरण कह सकते हैं। 1873 ई. में भारतेंदु ने "हरिश्चंद्र मैगजीन" की स्थापना की। एक वर्ष बाद यह पत्र "हरिश्चंद्र चंद्रिका" नाम से प्रसिद्ध हुआ। वैसे भारतेंदु का "कविवचन सुधा" पत्र 1867 में ही सामने आ गया था और उसने पत्रकारिता के विकास में महत्वपूर्ण भाग लिया था; परंतु नई भाषाशैली का प्रवर्तन 1873 में "हरिश्चंद्र मैगजीन" से ही हुआ। इस बीच के अधिकांश पत्र प्रयोग मात्र कहे जा सकते हैं और उनके पीछे पत्रकला का ज्ञान अथवा नए विचारों के प्रचार की भावना नहीं है। "उदंत मार्तंड" के बाद प्रमुख पत्र हैं : बंगदूत (1829), प्रजामित्र (1834), बनारस अखबार (1845), मार्तंड पंचभाषीय (1846), ज्ञानदीप (1846), मालवा अखबार (1849), जगद्दीप भास्कर (1849), सुधाकर (1850), साम्यदंड मार्तंड (1850), मजहरुलसरूर (1850), बुद्धिप्रकाश (1852), ग्वालियर गजेट (1853), समाचार सुधावर्षण (1854), दैनिक कलकत्ता, प्रजाहितैषी (1855), सर्वहितकारक (1855), सूरजप्रकाश (1861), जगलाभचिंतक (1861), सर्वोपकारक (1861), प्रजाहित (1861), लोकमित्र (1835), भारतखंडामृत (1864), तत्वबोधिनी पत्रिका (1865), ज्ञानप्रदायिनी पत्रिका (1866), सोमप्रकाश (1866), सत्यदीपक (1866), वृत्तांतविलास (1867), ज्ञानदीपक (1867), कविवचनसुधा (1867), धर्मप्रकाश (1867), विद्याविलास (1867), वृत्तांतदर्पण (1867), विद्यादर्श (1869), ब्रह्मज्ञानप्रकाश (1869), अलमोड़ा अखबार (1870), आगरा अखबार (1870), बुद्धिविलास (1870), हिंदू प्रकाश (1871), प्रयागदूत (1871), बुंदेलखंड अखबर (1871), प्रेमपत्र (1872), और बोधा समाचार (1872)। इन पत्रों में से कुछ मासिक थे, कुछ साप्ताहिक। दैनिक पत्र केवल एक था "समाचार सुधावर्षण" जो द्विभाषीय (बंगला हिंदी) था और कलकत्ता से प्रकाशित होता था। यह दैनिक पत्र 1871 तक चलता रहा। अधिकांश पत्र आगरा से प्रकाशित होते थे जो उन दिनों एक बड़ा शिक्षाकेंद्र था, और विद्यार्थीसमाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। शेष ब्रह्मसमाज, सनातन धर्म और मिशनरियों के प्रचार कार्य से संबंधित थे। बहुत से पत्र द्विभाषीय (हिंदी उर्दू) थे और कुछ तो पंचभाषीय तक थे। इससे भी पत्रकारिता की अपरिपक्व दशा ही सूचित होती है। हिंदीप्रदेश के प्रारंभिक पत्रों में "बनारस अखबार" (1845) काफी प्रभावशाली था और उसी की भाषानीति के विरोध में 1850 में तारामोहन मैत्र ने काशी से साप्ताहिक "सुधाकर" और 1855 में राजा लक्ष्मणसिंह ने आगरा से "प्रजाहितैषी" का प्रकाशन आरंभ किया था। राजा शिवप्रसाद का "बनारस अखबार" उर्दू भाषाशैली को अपनाता था तो ये दोनों पत्र पंडिताऊ तत्समप्रधान शैली की ओर झुकते थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि 1867 से पहले भाषाशैली के संबंध में हिंदी पत्रकार किसी निश्चित शैली का अनुसरण नहीं कर सके थे। इस वर्ष कवि वचनसुधा का प्रकाशन हुआ और एक तरह से हम उसे पहला महत्वपूर्ण पत्र कह सकते हैं। पहले यह मासिक था, फिर पाक्षिक हुआ और अंत में साप्ताहिक। भारतेंदु के बहुविध व्यक्तित्व का प्रकाशन इस पत्र के माध्यम से हुआ, परंतु सच तो यह है कि "हरिश्चंद्र मैगजीन" के प्रकाशन (1873) तक वे भी भाषाशैली और विचारों के क्षेत्र में मार्ग ही खोजते दिखाई देते हैं।


हिंदी पत्रकारिता का दूसरा युग : भारतेंदु युग
हिंदी पत्रकारिता का दूसरा युग 1873 से 1900 तक चलता है। इस युग के एक छोर पर भारतेंदु का "हरिश्चंद्र मैगजीन" था ओर नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा अनुमोदनप्राप्त "सरस्वती"। इन 27 वर्षों में प्रकाशित पत्रों की संख्या 300-350 से ऊपर है और ये नागपुर तक फैले हुए हैं। अधिकांश पत्र मासिक या साप्ताहिक थे। मासिक पत्रों में निबंध, नवल कथा (उपन्यास), वार्ता आदि के रूप में कुछ अधिक स्थायी संपत्ति रहती थी, परंतु अधिकांश पत्र 10-15 पृष्ठों से अधिक नहीं जाते थे और उन्हें हम आज के शब्दों में "विचारपत्र" ही कह सकते हैं। साप्ताहिक पत्रों में समाचारों और उनपर टिप्पणियों का भी महत्वपूर्ण स्थान था। वास्तव में दैनिक समाचार के प्रति उस समय विशेष आग्रह नहीं था और कदाचित् इसीलिए उन दिनों साप्ताहिक और मासिक पत्र कहीं अधिक महत्वपूर्ण थे। उन्होंने जनजागरण में अत्यंत महत्वपूर्ण भाग लिया था।
उन्नीसवीं शताब्दी के इन 25 वर्षों का आदर्श भारतेंदु की पत्रकारिता थी। "कविवचनसुधा" (1867), "हरिश्चंद्र मैगजीन" (1874), श्री हरिश्चंद्र चंद्रिका" (1874), बालबोधिनी (स्त्रीजन की पत्रिक, 1874) के रूप में भारतेंदु ने इस दिशा में पथप्रदर्शन किया था। उनकी टीकाटिप्पणियों से अधिकरी तक घबराते थे और "कविवचनसुधा" के "पंच" पर रुष्ट होकर काशी के मजिस्ट्रेट ने भारतेंदु के पत्रों को शिक्षा विभाग के लिए लेना भी बंद करा दिया था। इसमें संदेह नहीं कि पत्रकारिता के क्षेत्र भी भारतेंदु पूर्णतया निर्भीक थे और उन्होंने नए नए पत्रों के लिए प्रोत्साहन दिया। "हिंदी प्रदीप", "भारतजीवन" आदि अनेक पत्रों का नामकरण भी उन्होंने ही किया था। उनके युग के सभी पत्रकार उन्हें अग्रणी मानते थे।


भारतेंदु के बाद
भारतेंदु के बाद इस क्षेत्र में जो पत्रकार आए उनमें प्रमुख थे पंडित रुद्रदत्त शर्म, (भारतमित्र, 1877), बालकृष्ण भट्ट (हिंदी प्रदीप, 1877), दुर्गाप्रसाद मिश्र (उचित वक्ता, 1878), पंडित सदानंद मिश्र (सारसुधानिधि, 1878), पंडित वंशीधर (सज्जन-कीर्त्ति-सुधाकर, 1878), बदरीनारायण चौधरी "प्रेमधन" (आनंदकादंबिनी, 1881), देवकीनंदन त्रिपाठी (प्रयाग समाचार, 1882), राधाचरण गोस्वामी (भारतेंदु, 1882), पंडित गौरीदत्त (देवनागरी प्रचारक, 1882), राज रामपाल सिंह (हिंदुस्तान, 1883), प्रतापनारायण मिश्र (ब्राह्मण, 1883), अंबिकादत्त व्यास, (पीयूषप्रवाह, 1884), बाबू रामकृष्ण वर्मा (भारतजीवन, 1884), पं. रामगुलाम अवस्थी (शुभचिंतक, 1888), योगेशचंद्र वसु (हिंदी बंगवासी, 1890), पं. कुंदनलाल (कवि व चित्रकार, 1891), और बाबू देवकीनंदन खत्री एवं बाबू जगन्नाथदास (साहित्य सुधानिधि, 1894)। 1895 ई. में "नागरीप्रचारिणी पत्रिका" का प्रकाशन आरंभ होता है। इस पत्रिका से गंभीर साहित्यसमीक्षा का आरंभ हुआ और इसलिए हम इसे एक निश्चित प्रकाशस्तंभ मान सकते हैं। 1900 ई. में "सरस्वती" और "सुदर्शन" के अवतरण के साथ हिंदी पत्रकारिता के इस दूसरे युग पर पटाक्षेप हो जाता है।
इन 25 वर्षों में हमारी पत्रकारिता अनेक दिशाओं में विकसित हुई। प्रारंभिक पत्र शिक्षाप्रसार और धर्मप्रचार तक सीमित थे। भारतेंदु ने सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक दिशाएँ भी विकसित कीं। उन्होंने ही "बालाबोधिनी" (1874) नाम से पहला स्त्री-मासिक-पत्र चलाया। कुछ वर्ष बाद महिलाओं को स्वयं इस क्षेत्र में उतरते देखते हैं - "भारतभगिनी" (हरदेवी, 1888), "सुगृहिणी" (हेमंतकुमारी, 1889)। इन वर्षों में धर्म के क्षेत्र में आर्यसमाज और सनातन धर्म के प्रचारक विशेष सक्रिय थे। ब्रह्मसमाज और राधास्वामी मत से संबंधित कुछ पत्र और मिर्जापुर जैसे ईसाई केंद्रों से कुछ ईसाई धर्म संबंधी पत्र भी सामने आते हैं, परंतु युग की धार्मिक प्रतिक्रियाओं को हम आर्यसमाजी और सनातनी पत्रों में ही पाते हैं। आज ये पत्र कदाचित् उतने महत्वपूर्ण नहीं जान पड़ते, परंतु इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने हमारी गद्यशैली को पुष्ट किया और जनता में नए विचारों की ज्योति भी। इन धार्मिक वादविवादों के फलस्वरूप समाज के विभिन्न वर्ग और संप्रदाय सुधार की ओर अग्रसर हुए और बहुत शीघ्र ही सांप्रदायिक पत्रों की बाढ़ आ गई। सैकड़ों की संख्या में विभिन्न जातीय और वर्गीय पत्र प्रकाशित हुए और उन्होंने असंख्य जनों को वाणी दी।
आज वही पत्र हमारी इतिहासचेतना में विशेष महत्वपूर्ण हैं जिन्होंने भाषा शैली, साहित्य अथवा राजनीति के क्षेत्र में कोई अप्रतिम कार्य किया हो। साहित्यिक दृष्टि से "हिंदी प्रदीप" (1877), ब्राह्मण (1883), क्षत्रियपत्रिका (1880), आनंदकादंबिनी (1881), भारतेंदु (1882), देवनागरी प्रचारक (1882), वैष्णव पत्रिका (पश्चात् पीयूषप्रवाह, 1883), कवि के चित्रकार (1891), नागरी नीरद (1883), साहित्य सुधानिधि (1894), और राजनीतिक दृष्टि से भारतमित्र (1877), उचित वक्ता (1878), सार सुधानिधि (1878), भारतोदय (दैनिक, 1883), भारत जीवन (1884), भारतोदय (दैनिक, 1885), शुभचिंतक (1887) और हिंदी बंगवासी (1890) विशेष महत्वपूर्ण हैं। इन पत्रों में हमारे 19वीं शताब्दी के साहित्यरसिकों, हिंदी के कर्मठ उपासकों, शैलीकारों और चिंतकों की सर्वश्रेष्ठ निधि सुरक्षित है। यह क्षोभ का विषय है कि हम इस महत्वपूर्ण सामग्री का पत्रों की फाइलों से उद्धार नहीं कर सके। बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, सदानं मिश्र, रुद्रदत्त शर्मा, अंबिकादत्त व्यास और बालमुकुंद गुप्त जैसे सजीव लेखकों की कलम से निकले हुए न जाने कितने निबंध, टिप्पणी, लेख, पंच, हास परिहास औप स्केच आज में हमें अलभ्य हो रहे हैं। आज भी हमारे पत्रकार उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं। अपने समय में तो वे अग्रणी थे ही।


तीसरा चरण : बीसवीं शताब्दी के प्रथम बीस वर्ष
बीसवीं शताब्दी की पत्रकारिता हमारे लिए अपेक्षाकृत निकट है और उसमें बहुत कुछ पिछले युग की पत्रकारिता की ही विविधता और बहुरूपता मिलती है। 19वीं शती के पत्रकारों को भाषा-शैलीक्षेत्र में अव्यवस्था का सामना करना पड़ा था। उन्हें एक ओर अंग्रेजी और दूसरी ओर उर्दू के पत्रों के सामने अपनी वस्तु रखनी थी। अभी हिंदी में रुचि रखनेवाली जनता बहुत छोटी थी। धीरे-धीरे परिस्थिति बदली और हम हिंदी पत्रों को साहित्य और राजनीति के क्षेत्र में नेतृत्व करते पाते हैं। इस शताब्दी से धर्म और समाजसुधार के आंदोलन कुछ पीछे पड़ गए और जातीय चेतना ने धीरे-धीरे राष्ट्रीय चेतना का रूप ग्रहण कर लिया। फलत: अधिकांश पत्र, साहित्य और राजनीति को ही लेकर चले। साहित्यिक पत्रों के क्षेत्र में पहले दो दशकों में आचार्य द्विवेदी द्वारा संपादित "सरस्वती" (1903-1918) का नेतृत्व रहा। वस्तुत: इन बीस वर्षों में हिंदी के मासिक पत्र एक महान् साहित्यिक शक्ति के रूप में सामने आए। शृंखलित उपन्यास कहानी के रूप में कई पत्र प्रकाशित हुए - जैसे उपन्यास 1901, हिंदी नाविल 1901, उपन्यास लहरी 1902, उपन्याससागर 1903, उपन्यास कुसुमांजलि 1904, उपन्यासबहार 1907, उपन्यास प्रचार 19012। केवल कविता अथवा समस्यापूर्ति लेकर अनेक पत्र उन्नीसवीं शतब्दी के अंतिम वर्षों में निकलने लगे थे। वे चले रहे। समालोचना के क्षेत्र में "समालोचक" (1902) और ऐतिहासिक शोध से संबंधित "इतिहास" (1905) का प्रकाशन भी महत्वपूर्ण घटनाएँ हैं। परंतु सरस्वती ने "मिस्लेनी" () के रूप में जो आदर्श रखा था, वह अधिक लोकप्रिय रहा और इस श्रेणी के पत्रों में उसके साथ कुछ थोड़े ही पत्रों का नाम लिया जा सकता है, जैसे "भारतेंदु" (1905), नागरी हितैषिणी पत्रिका, बाँकीपुर (1905), नागरीप्रचारक (1906), मिथिलामिहिर (1910) और इंदु (1909)। "सरस्वती" और "इंदु" दोनों हमारी साहित्यचेतना के इतिहास के लिए महत्वपूर्ण हैं और एक तरह से हम उन्हें उस युग की साहित्यिक पत्रकारिता का शीर्षमणि कह सकते हैं। "सरस्वती" के माध्यम से आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी और "इंदु" के माध्यम से पंडित रूपनारायण पांडेय ने जिस संपादकीय सतर्कता, अध्यवसाय और ईमानदारी का आदर्श हमारे सामने रखा वह हमारी पत्रकारित को एक नई दिशा देने में समर्थ हुआ।
परंतु राजनीतिक क्षेत्र में हमारी पत्रकारिता को नेतृत्व प्राप्त नहीं हो सका। पिछले युग की राजनीतिक पत्रकारिता का केंद्र कलकत्ता था। परंतु कलकत्ता हिंदी प्रदेश से दूर पड़ता था और स्वयं हिंदी प्रदेश को राजनीतिक दिशा में जागरूक नेतृत्व कुछ देर में मिला। हिंदी प्रदेश का पहला दैनिक राजा रामपालसिंह का द्विभाषीय "हिंदुस्तान" (1883) है जो अंग्रेजी और हिंदी में कालाकाँकर से प्रकाशित होता था। दो वर्ष बाद (1885 में), बाबू सीताराम ने "भारतोदय" नाम से एक दैनिक पत्र कानपुर से निकालना शुरू किया। परंतु ये दोनों पत्र दीर्घजीवी नहीं हो सके और साप्ताहिक पत्रों को ही राजनीतिक विचारधारा का वाहन बनना पड़ा। वास्तव में उन्नीसवीं शतब्दी में कलकत्ता के भारत मित्र, वंगवासी, सारसुधानिधि और उचित वक्ता ही हिंदी प्रदेश की रानीतिक भावना का प्रतिनिधित्व करते थे। इनमें कदाचित् "भारतमित्र" ही सबसे अधिक स्थायी और शक्तिशाली था। उन्नीसवीं शताब्दी में बंगाल और महाराष्ट्र लोक जाग्रति के केंद्र थे और उग्र राष्ट्रीय पत्रकारिता में भी ये ही प्रांत अग्रणी थे। हिंदी प्रदेश के पत्रकारों ने इन प्रांतों के नेतृत्व को स्वीकार कर लिया और बहुत दिनों तक उनका स्वतंत्र राजनीतिक व्यक्तित्व विकसित नहीं हो सका। फिर भी हम "अभ्युदय" (1905), "प्रताप" (1913), "कर्मयोगी", "हिंदी केसरी" (1904-1908) आदि के रूप में हिंदी राजनीतिक पत्रकारिता को कई डग आगे बढ़ाते पाते हैं। प्रथम महायुद्ध की उत्तेजना ने एक बार फिर कई दैनिक पत्रों को जन्म दिया। कलकत्ता से "कलकत्ता समाचार", "स्वतंत्र" और "विश्वमित्र" प्रकाशित हुए, बंबई से "वेंकटेश्वर समाचार" ने अपना दैनिक संस्करण प्रकाशित करना आरंभ किया और दिल्ली से "विजय" निकला। 1921 में काशी से "आज" और कानपुर से "वर्तमान" प्रकाशित हुए। इस प्रकार हम देखते हैं कि 1921 में हिंदी पत्रकारिता फिर एक बार करवटें लेती है और राजनीतिक क्षेत्र में अपना नया जीवन आरंभ करती है। हमारे साहित्यिक पत्रों के क्षेत्र में भी नई प्रवृत्तियों का आरंभ इसी समय से होता है। फलत: बीसवीं शती के पहले बीस वर्षों को हम हिंदी पत्रकारिता का तीसरा चरण कह सकते हैं।


आधुनिक युग
1921 के बाद हिंदी पत्रकारिता का समसामयिक युग आरंभ होता है। इस युग में हम राष्ट्रीय और साहित्यिक चेतना को साथ साथ पल्लवित पाते हैं। इसी समय के लगभग हिंदी का प्रवेश विश्वविद्यालयों में हुआ और कुछ ऐसे कृती संपादक सामने आए जो अंग्रेजी की पत्रकारिता से पूर्णत: परिचित थे और जो हिंदी पत्रों को अंग्रेजी, मराठी और बँगला के पत्रों के समकक्ष लाना चाहते थे। फलत: साहित्यिक पत्रकारिता में एक नए युग का आरंभ हुआ। राष्ट्रीय आंदोलनों ने हिंदी की राष्ट्रभाषा के लिए योग्यता पहली बार घोषित की ओर जैसे-जैसे राष्ट्रीय आंदोलनों का बल बढ़ने लगा, हिंदी के पत्रकार और पत्र अधिक महत्व पाने लगे। 1921 के बाद गांधी जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन मध्यवर्ग तक सीमित न रहकर ग्रामीणों और श्रमिकों तक पहुंच गया और उसके इस प्रसार में हिंदी पत्रकारिता ने महत्वपूर्ण योग दिया। सच तो यह है कि हिंदी पत्रकार राष्ट्रीय आंदोलनों की अग्र पंक्ति में थे और उन्होंने विदेशी सत्ता से डटकर मोर्चा लिया। विदेशी सरकार ने अनेक बार नए नए कानून बनाकर समाचारपत्रों की स्वतंत्रता पर कुठाराघात किया परंतु जेल, जुर्माना और अनेकानेक मानसिक और आर्थिक कठिनाइयाँ झेलते हुए भी हमारे पत्रकारों ने स्वतंत्र विचार की दीपशिखा जलाए रखी।
1921 के बाद साहित्यक्षेत्र में जो पत्र आए उनमें प्रमुख हैं स्वार्थ (1922), माधुरी (1923), मर्यादा, चाँद (1923), मनोरमा (1924), समालोचक (1924), चित्रपट (1925), कल्याण (1926), सुधा (1927), विशालभारत (1928), त्यागभूमि (1928), हंस (1930), गंगा (1930), विश्वमित्र (1933), रूपाभ (1938), साहित्य संदेश (1938), कमला (1939), मधुकर (1940), जीवनसाहित्य (1940), विश्वभारती (1942), संगम (1942), कुमार (1944), नया साहित्य (1945), पारिजात (1945), हिमालय (1946) आदि। वास्तव में आज हमारे मासिक साहित्य की प्रौढ़ता और विविधता में किसी प्रकार का संदेह नहीं हो सकता। हिंदी की अनेकानेक प्रथम श्रेणी की रचनाएँ मासिकों द्वारा ही पहले प्रकाश में आई और अनेक श्रेष्ठ कवि और साहित्यकार पत्रकारिता से भी संबंधित रहे। आज हमारे मासिक पत्र जीवन और साहित्य के सभी अंगों की पूर्ति करते हैं और अब विशेषज्ञता की ओर भी ध्यान जाने लगा है। साहित्य की प्रवृत्तियों की जैसी विकासमान झलक पत्रों में मिलती है, वैसी पुस्तकों में नहीं मिलती। वहाँ हमें साहित्य का सक्रिय, सप्राण, गतिशील रूप प्राप्त होता है।
राजनीतिक क्षेत्र में इस युग में जिन पत्रपत्रिकाओं की धूम रही वे हैं - कर्मवीर (1924), सैनिक (1924), स्वदेश (1921), श्रीकृष्णसंदेश (1925), हिंदूपंच (1926), स्वतंत्र भारत (1928), जागरण (1929), हिंदी मिलाप (1929), सचित्र दरबार (1930), स्वराज्य (1931), नवयुग (1932), हरिजन सेवक (1932), विश्वबंधु (1933), नवशक्ति (1934), योगी (1934), हिंदू (1936), देशदूत (1938), राष्ट्रीयता (1938), संघर्ष (1938), चिनगारी (1938), नवज्योति (1938), संगम (1940), जनयुग (1942), रामराज्य (1942), संसार (1943), लोकवाणी (1942), सावधान (1942), हुंकार (1942), और सन्मार्ग (1943)। इनमें से अधिकांश साप्ताहिक हैं, परंतु जनमन के निर्माण में उनका योगदान महत्वपूर्ण रहा है। जहाँ तक पत्र कला का संबंध है वहाँ तक हम स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि तीसरे और चौथे युग के पत्रों में धरती और आकाश का अंतर है। आज पत्रसंपादन वास्तव में उच्च कोटि की कला है। राजनीतिक पत्रकारिता के क्षेत्र में "आज" (1921) और उसके संपादक स्वर्गीय बाबूराव विष्णु पराड़कर का लगभग वही स्थान है जो साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी को प्राप्त है। सच तो यह है कि "आज" ने पत्रकला के क्षेत्र में एक महान् संस्था का काम किया है और उसने हिंदी को बीसियों पत्रसंपादक और पत्रकार दिए हैं।
आधुनिक साहित्य के अनेक अंगों की भाँति हमारी पत्रकारिता भी नई कोटि की है और उसमें भी मुख्यत: हमारे मध्यवित्त वर्ग की सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक औ राजनीतिक हलचलों का प्रतिबिंब भास्वर है। वास्तव में पिछले 140 वर्षों का सच्चा इतिहास हमारी पत्रपत्रिकाओं से ही संकलित हो सकता है। बँगला के "कलेर कथा" ग्रंथ में पत्रों के अवतरणों के आधार पर बंगाल के उन्नीसवीं शताब्दी के मध्यवित्तीय जीवन के आकलन का प्रयत्न हुआ है। हिंदी में भी ऐसा प्रयत्न वांछनीय है। एक तरह से उन्नीसवीं शती में साहित्य कही जा सकनेवाली चीज बहुत कम है और जो है भी, वह पत्रों के पृष्ठों में ही पहले-पहल सामने आई है। भाषाशैली के निर्माण और जातीय शैली के विकास में पत्रों का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है, परंतु बीसवीं शती के पहले दो दशकों के अंत तक मासिक पत्र और साप्ताहिक पत्र ही हमारी साहित्यिक प्रवृत्तियों को जन्म देते और विकसित करते रहे हैं। द्विवेदी युग के साहित्य को हम "सरस्वती" और "इंदु" में जिस प्रयोगात्मक रूप में देखते हैं, वही उस साहित्य का असली रूप है। 1921 ई. के बाद साहित्य बहुत कुछ पत्रपत्रिकाओं से स्वतंत्र होकर अपने पैरों पर खड़ा होने लगा, परंतु फिर भी विशिष्ट साहित्यिक आंदोलनों के लिए हमें मासिक पत्रों के पृष्ठ ही उलटने पड़ते हैं। राजनीतिक चेतना के लिए तो पत्रपत्रिकाएँ हैं ही। वस्तुत: पत्रपत्रिकाएँ जितनी बड़ी जनसंख्या को छूती हैं, विशुद्ध साहित्य का उतनी बड़ी जनसंख्या तक पहुँचना असंभव है।

Sunday, July 19, 2009

पश्चिमी मीडिया के दुष्प्रचार का शिकार भारत

पिछले महीनों में ब्रिटेन से निकलने वाले समाचार पत्रों न्यू सांइटिस्ट और न्यू स्टेट्समेन ने भारत के संबंध में व्याप्त रुढ़िबद्ध धारणा को चुनौती देते हुए विशेषांक छापे हैं।
जनवरी में न्यू स्टेट्समेन ने अपने ग्राहकों को यह प्रस्ताव दिया कि आपको नई महाशक्ति के आर्थिक उछाल से लेकर सेक्स क्रांति तक जानने की आवश्यकता हैं इसके पूर्व न्यू साइंटिस्ट ने अधिक मर्यादित तरीके से यह बताने परमाणु शक्ति व सेटेलाईट जैसी अत्याधुनिक तकनीके उपलब्ध हैं, बिल्कि वह उनका उपयोग अपने समाज के निर्धनतम लोगों के विकास के लिए भी कर रहा हैं। उसने इस बात की ओर भी इंगित किया कि भारत के राष्ट्रपति जो कि एक मुस्लिम है, अंतरिक्ष और परमाणु विज्ञान दोनों विषयों के विशेषज्ञ भी हैं।
इस तरह के प्रकाशनों ने भारत से संबंधित उस रुढ़िबद्ध धारणा को चुनौती दी है जिसके अनुसार भारत एक पिछड़ा, अंधविश्वासी एवं गरीबी आदि व्याधियों से ग्रसित राष्ट्र है। परन्तु हमारे पास इस बात के वास्तविक प्रमाण मौजूद हैं कि किस प्रकार नई तकनीक दूरस्थ समुदायों को बजली, प्राथमिक शिक्षा, इन्टरनेट इत्यादि उपलब्ध करवा रही हैं । परन्तु विश्व के कई हिस्सों खासकर गरीब देशों में जो कुछ घटित हो रहा है उसकी एक संतुलित तस्वीर प्रस्तुत करना अभी भी एक गतिशील संघर्ष ही है।
कुछ दिनों पूर्व दी इंडिपेंडेंट ने एक बड़ा लेख छापा था जिसमें यह दावा किया गया था कि भारत को किसी भी यूरोपियन देश की बनिस्बत अत्यधिक ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन के लिए दोषी ठहराया जा सकता है। इस वक्तव्य को अगर इसके वास्तविक स्वरुप में ग्रहण करें तो यह वक्तव्य बहुत ही बेचैन कर देने वाला प्रतीत होता हैं। पर गौर करने पर यह तर्क ही ढेर हो जाता है। तो मैंने समाचार पत्र को इस बिन्दु की ओर इशारा करते हुए लिखा, एक अरब से ज्यादा की जनसंख्या वाले भारत की तुलना किसी एक यूरोपीय देश से नहीं बल्कि संपूर्ण यूरोप से करना चाहिए।
उत्तरी अमेरिका के निवासियों की तुलना में भारत का नागरिक मात्र १० प्रतिशत कार्बन डाई ऑक्साइड उत्पन्न करता हैं। वास्तविकता यह भी है कि एक ब्रिटिश बच्चा, जी-८ देशों के अतिरिक्त अन्य किसी भी देश के बच्चे की बनिस्बत विश्व के प्राकृतिक संसाधनों का ८ गुना ज्यादा उपभोग करता है।
हाल ही में इसी समाचार पत्र ने घोषणा की कि दो बड़े वैज्ञानिकों के अनुसार अधिक जनसंख्या इस ग्रह के लिए खतरा हैं। इन दोनों वैज्ञानिकों का यह दृढ़ विश्वास है कि यह एक साधारण सा सच है, जिसकी राजनीति के कारण या तो अनदेखी की गई है या महत्व नहीं दिया गया। इस आक्षेप के प्रत्युत्तर में मैंने एक लिफाफे के पीछे कुछ गणनाएं की और इस संशोधन के साथ समचार पत्र के कार्यालय को भेजा। अगर आप सारी विश्व की जनसंख्या को अमेरिका में भेज दें तो वहां पर जनसंख्या का घनत्व हालैंड की जनसंख्या के घनत्व जितना होगा और डच निवासियों के पास अपने मनपसंद ट्यूलिप (एक प्रकार के फूल) उगाने के लिए भरपूर स्थान फिर भी शेष रहेगा।
अब भारत के बारे में कुछ अच्छे समाचार ? भारत के कुछ बड़े शहरों में अब यह कानूनन अनिवार्य हो गया है कि वहां पर चलने वाले वाहन सी.एन.जी. ही इंर्धन के रुप में इस्तेमाल कर सकेंगग। इससे श्वास संबंधी रोगों में जबरदस्त कमी आई हैं । पर इस संदर्भ को आपने कभी ब्रिटिश अखबारों या टेलीविजन में होते देखा है? निश्चित तौर पर नहीं, क्योंकि किसी को भी कार उद्योग की उच्चाकांक्षा को चुनौती देने का मौका है ही नहीं।
भारत द्वारा ऐसे व्यापक पर्यावरणीय कानूनों का निर्माण कर पाना इसलिए संभव हो पाया है कि यहां का सर्वोच्य न्यायालय इसमें सीधे हस्तक्षेप करता है। और जिसके पास काफी मात्रा में शक्तियां निहित हैें।
पर्यावरण के मसले पर भी भारत कम राजनीतिक स्तर पर तो एक विश्व नेता है। १९७२ में सम्पन्न संयुक्त राष्ट्रसंघ प्रथम पर्यावरणीय सम्मेलन में भागीदारी करने वाली भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी एक मात्र राष्ट्र प्रमुख थी। १९८१ में आयोजित नए एवं पुर्नसंशोधित की जा सकने वाली ऊर्जा से संबंधित संयुक्त राष्ट्र संध के सम्मेलन में भी जिन तीन राष्ट्रप्रमुखों ने भाग लिया था इंदिरा गांधी उनमें से भी एक थीं। १९७० और १९८० के दशकों में पर्यावरण और विकास को लेकर भारत के सरोकारों में और भी परिपक्वता आई। प्रोजेक्ट टाइगर ओर उनके नए राष्ट्रीय पार्क इसी के उदाहरण हैं। पर रुढ़ीबद्ध धारणा अपनी जगह बनी हुई है। अगर व्यक्ति सामूहिक रुप से इसका विरोध करेंगे तभी इस प्रवृत्ति में परिवर्तन आ सकता है, क्योंकि ज्यादातर लोग तो अनजान हैं और उन्हें निहित स्वार्थो, राजनीतिक स्वार्थ और सामुहिक असंयम द्वारा बरगलाया जाता है।
अगर हम पश्चिम के निवासी स्वयं को इस बात के लिए संतुष्ट कर लेंगे कि तथाकथित विकासशीत विश्व के लोगों को अधिक जनसंख्या, भू-मंडलीय तापमान वृद्धि, महामारियेां और अन्य प्रमुख समस्याओं के लिए दोषी ठहराया जा सकता है तो भी यह उनके (विकासशील देशों) पर ही निर्भर है कि वे अपना रास्ता बदलें, बजाए इसके की हमें उनके लिए कुछ करने की आवश्यकता पड़े। वास्तव में प्रभावशाली उपभोक्तावादी औद्योगिक विश्व और गैर औद्योगिक देशों के कुछ शहरी क्षेत्र हमारे इस वर्तमान भूमंडलीय संकट के लिए जिम्मेदार हैं। उनके लिए इस तरह की रुढ़िबद्ध धारणाओं को बल देकर हमें इस बात का विश्वास दिला देना आसान है, जिससे कि हम सारा दोष उन विकासशील देशों पर मढ़ दें और हम सब अपनी जीवनचर्या में किसी भी प्रकार के परिवर्तन को प्रवृत्त ही न हों।

संरक्षण मुहिम बनी बाघों की मुसीबत

बाघों का कुनबा बढ़ाने की अफ़लातूनी कवायद से मध्यप्रदेश के प्रकृति प्रेमी खासे नाराज़ और वन्य जीव विशेषज्ञ हैरान हैं। बाघों की तादाद बढाने के लिए शुरु की गई मुहिम को लेकर कई तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं। लेकिन वन विभाग के आला अफ़सरान इन आपत्तियों को सिरे से खारिज कर बाघों की संख्या बढाने की दुहाई दे रहे हैं। ये और बात है कि जब से प्रोजेक्ट टाइगर शुरु हुआ है बाघों की मौत का सिलसिला तेज़ हो गया है। गोया यह परियोजना बाघों की मौत सुनिश्चित करने के लिए ही बनाई गई है।
हेलीकॉप्टर से बाघिन पहुँचाने की परियोजना सरिस्का के बाद अब मध्यप्रदेश में भी शुरु की गई है। लेकिन परियोजना का उद्देश्य अपनी मोटी बुद्धि में तो घुसता ही नहीं। इधर प्रदेश में बाघों की वंशवृद्धि के लिए नई तरकीबें आज़मायी जा रही हैं, उधर बाघों की मौतों के बढते ग्राफ़ ने तमाम सवाल भी खड़े कर दिये हैं।
हाल ही में सुरक्षा के सख्त इंतज़ाम के बीच वायुसेना के उड़नखटोले से बाघिन को पन्ना लाया गया। कान्हा नेशनल पार्क में सैलानियों को लुभा रही बाघिन अब अपने पिया के घर पन्ना नेशनल पार्क की रौनक बन गई है। इससे पहले तीन मार्च को बाँधवगढ़ टाइगर रिज़र्व में गुमनाम ज़िन्दगी गुज़ार रही बाघिन सड़क के रास्ते पन्ना पहुँची। पन्ना के बाघ महाशय के लिए पाँच दिनों में दो बाघिन भेजकर वन विभाग योजना की सफ़लता के “दिवा स्वप्न” देख रहा है।
मध्यप्रदेश में आए दिन बाघों के मरने की खबरें आती हैं। पिछले हफ़्ते कान्हा नेशनल पार्क में एक बाघ की मौत हो गई। वन विभाग ने स्थानीय संवाददाताओं की मदद से इस मौत को दो बाघों की लड़ाई का नतीजा बताने में ज़रा भी वक्त नहीं लगाया। वीरान घने जंगल में मरे जानवर की मौत के बारे में बिना किसी जाँच पड़ताल के तुरंत उसे बाघों का संघर्ष करार दे देना ही संदेह की पुष्टि का आधार बनता है । खैर, वन विभाग के जंगल नेताओं और अधिकारियों की चारागाह में तब्दील हो चुके हैं, अब इसमें कहने- सुनने के लिए कुछ भी बाकी नहीं रहा।
पिछले दो माह के दौरान कान्हा में बाघ की मौत की यह तीसरी घटना है। इसी अवधि में बाँधवगढ़ टाइगर रिज़र्व में भी बाघ की मौत हो चुकी है। बुधवार को इंदौर चिड़ियाघर में भी “बाँके” नाम के बाघ ने फ़ेंफ़ड़ों में संक्रमण के कारण एकाएक दम तोड़ दिया। भोपाल के राष्ट्रीय वन विहार में भी अब तक संभवतः तीन से ज़्यादा बाघों की मौत हो चुकी हैं । पन्ना नेशनल पार्क में बाघों की तादाद तेज़ी से घटी है। वर्ष 2005 में यहाँ 34 बाघ थे। इनमें 12 नर और 22 मादा थीं। 2006-2007 की भारतीय वन्यजीव संस्थान देहरादून की गणना में यह आँकड़ा 24 रह गया।
बाघिन को स्थानांतरित करने की मुहिम पर स्थानीय लोगों ने ही नहीं , देश के जानेमाने वन्यजीव विशेषज्ञों ने भी आपत्ति उठाई है। उन्होंने प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधान मुख्य वन संरक्षक को खत लिखकर अभियान रोकने की गुज़ारिश की थी । वन्य संरक्षण से जुड़े विशेषज्ञ बृजेन्द्र सिंह ,वाल्मिक थापर, डॉक्टर उल्हास कारंत, डॉक्टर आर. एस. चूड़ावत, पी. के. सेन, बिट्टू सहगल, फ़तेह सिंह राठौर और बिलिन्डा राइट ने बाघिन को बाँधवगढ़ से पन्ना ले जाने के बाद 7 मार्च को पत्र भेजा था। इसमें राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण और जानेमाने बाघ विशेषज्ञों से इस मुद्दे पर राय मशविरा नहीं करने पर एतराज़ जताया गया है।
विशेषज्ञों ने वन कानून और अपने अनुभव के आधार पर कई अहम मुद्दे रखे हैं, जिनके मुताबिक पन्ना की मौजूदा परिस्थितियाँ बाघिनों के स्थान परिवर्तन के लिए कतई अनुकूल नहीं हैं। साथ ही ऎसा मुद्दा भी उठाया है जो वन विभाग की पूरी कवायद पर ही सवालिया निशान लगाता है। पत्र में पिछले एक महीने में पन्ना टाइगर रिज़र्व में किसी भी बाघ के नहीं दिखने का ज़िक्र किया गया है।
हालाँकि पूरी कवायद फ़िलहाल अँधेरे में तीर चलाने जैसी है। जो सूरते हाल सामने आए हैं, उसके मुताबिक वन विभाग ही आश्वास्त नहीं है कि पन्ना में कोई बाघ बचा भी है या नहीं ….? तमाम विरोध और भारी मशक्कत के बीच दो बाघिनें पन्ना तक तो पहुँच गईं, मगर नेशनल पार्क में नर बाघ होने को लेकर वन विभाग भी संशय में है। दरअसल पार्क का इकलौता नर बाघ काफ़ी दिनों से नज़र नहीं आ रहा है।
प्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक डॉक्टर पी. बी. गंगोपाध्याय का कहना है कि ज़रुरी हुआ तो एक-दो नर बाघ भी पन्ना लाये जा सकते हैं। बाघों की मौजूदगी का पता लगाने के लिए पिछले दिनों भारतीय वन्यजीव संस्थान ने कैमरे लगाये थे , जिनसे पता चला कि पार्क में सिर्फ़ एक ही बाघ बचा है।
बाघ संरक्षण के क्षेत्र में काम कर रहे बाँधवगढ़ फ़ाउंडेशन के अध्यक्ष पुष्पराज सिंह इस वक्त बाघिन के स्थानांतरण को जोखिम भरा मानते हैं । गर्मियों में पन्ना के जलाशय सूख जाने से बाघों को शाकाहारी वन्यजीवों का भोजन मिलना दूभर हो जाता है । ऎसे में वे भटकते हुए गाँवों के सीमावर्ती इलाकों में पहुँच जाते हैं और कभी शिकारियों के हत्थे चढ़ जाते हैं या फ़िर ग्रामीणों के हाथों मारे जाते हैं । कान्हा की बाघिन को पन्ना ले जाने से रोकने में नाकाम रहे वन्यप्राणी प्रेमियों ने अब बाघिन की सुरक्षा को मुद्दा बना लिया है । अधिकारियों की जवाबदेही तय कराने के लिए हाईकोर्ट में अर्ज़ी लगाई गई है ।
जानकारों का ये तर्क एकदम जायज़ लगता है कि पन्ना को सरसब्ज़ बनाने का सपना देखने और इसकी कोशिश करने का वन विभाग को हक तो है, मगर साथ ही यह दायित्व भी है कि वह उन कारणों को पता करे जो पन्ना से बाघों के लुप्त होने का सबब बने । बाहर से लाये गये बाघ-बाघिनों की हिफ़ाज़त के लिहाज़ से भी इन कारणों का पता लगना बेहद ज़रुरी हो जाता है।
मध्यप्रदेश के वन विभाग के अफ़सरों की कार्यशैली के कुछ और नमूने पेश हैं,जो वन और वन्य जीवों के प्रति उनकी गंभीरता के पुख़्ता सबूत हैं -सारे भारत में वेलंटाइन डे को लेकर हर साल बवाल होता है, लेकिन वन विभाग के उदारमना अफ़सरों का क्या कीजिएगा जो वन्य प्राणियों के लिए भी “वेलंटाइन हाउस” बनवा देते हैं। भोपाल के वन विहार के जानवर पर्यटकों की आवाजाही से इस कदर परेशान रहते हैं कि वे अपने संगी से दो पल भी चैन से मीठे बोल नहीं बोल पाते। एकांत की तलाश में मारे-मारे फ़िरते इन जोड़ों ने एक दिन प्रभारी महोदय के कान में बात डाल दी और उन महाशय ने आनन-फ़ानन में तीन लाख रुपए ख़र्च कर इन प्रेमियों के मिलने का ठिकाना “वेलंटाइन हाउस” खड़ा करा दिया । कुछ सीखो बजरंगियों, मुथालिकों, शिव सैनिकों….। प्रेमियों को मिलाने से पुण्य मिलता है और अच्छी कमाई भी होती है।
इन्हीं अफ़सर ने वन्य प्राणियों की रखवाली के लिए वन विहार की ऊँची पहाड़ी पर दस लाख रुपए की लागत से तीन मंज़िला वॉच टॉवर बनवा दिया। भोपाल का वन विहार यूँ तो काफ़ी सुरक्षित है, लेकिन जँगली जानवर होते बड़े चालाक हैं। वन कर्मियों की नज़र बचा कर कभी भालू, तो कभी बंदर, तो कभी मगर भोपालवासियों से मेल मुलाकात के लिए निकल ही पड़ते हैं। तिमँज़िला वॉच टॉवर पर टँगा कर्मचारी बेचारा चिल्लाता ही रह जाता है।

देश में बाघों की संख्या में गिरावट आयी


समूचे देश में बाघों की ताजा गणना के आज जारी अनुमानों के अनुसार देश में बाघों की संख्या में गिरावट आयी है और उनकी संख्या वर्ष 2001 में 3642 से घटकर लगभग 1500 हो गई हैपर्यावरण और वन मंत्रालय ने कहा कि वर्ष 2001 और वर्ष 2007 के आंकडों की तुलना नहीं.नही.की जा सकती क्योंकि गणना की पद्धति एकदम अलग अलग थी1भारतीय वन्यजीव संस्थान की गणना रिपोर्ट को वन राज्यमंत्री एस रघुपति ने आज यहां जारी कियाराष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण के डा राजेश गोपाल ने कहा कि देश में बाघों की कुल संख्या 1411 थी.जिसमें 17.43 प्रतिशत कमी या वृद्धि हो सकती है और न्यूनतम1165 और ऊपरी सीमा1657 है1देश के अन्य राज्यों की गणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में 109.उत्तराखंड 170.बिहार 10.आंध्रपदेश 75.छत्तीसगढ 26.मध्यप्रदेश 300.महाराष्ट्र 103.उडीसा 45.राजस्थान 32.कर्नाटक 290.केरल 46.तमिलनाडु 76.असम 70.अरुणाचल प्रदेश 14.मिजोरम06.और पश्चिम बंगाल में 10 बाघ हैउन्होंने कहा कि पश्चिम बंगाल के सुंदरबन में विशेष परिस्थिति के कारण बाघों की गणना की प्रक्रिया अभी भी जारी है1 छत्तीसगढ के इन्द्रावती बाघ अभयारण्य औरारखंड के पलामू बाघ अभयारण्य में नक्सली आंदोलन के कारण सम्पर्क के अभाव में गणना नहीं.नहीं.हो पायी है

20वीं सदी में 39 हजार बाघ विलुप्त


पूरी दुनिया में बाघों के अस्तित्व पर संकट मंडराया हुआ है। पिछली सदी में इंडोनेशिया में बाघ की तीन उप प्रजातियों का पूरी तरह सफाया हो गया है। भारतीय उपमहाद्वीप में भी 20वीं सदी में 39 हजार बाघ विलुप्त हो गए।वर्तमान सदी में भी यह संकट लगातार बना हुआ है और देश का राष्ट्रीय पशु अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहा है।एक अनुमान के मुताबिक पिछली सदी में भारतीय उपमहाद्वीप से 39 हजार बाघ गायब हो गए।बाघों की संख्या में निरंतर हो रहे ह्मस की वजह से ही 1970 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय पशु के शिकार पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन इसके बावजूद शिकारी अपने इरादों में लगातार कामयाब हो रहे हैं।हाल ही में राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण द्वारा कराई गई गणना से खुलासा हुआ है कि मात्र पिछले छह साल में ही भारत में बाघों की 50 फीसदी संख्या कम हो चुकी है।बाघों के जीवन पर आसन्न खतरे के चलते ही 1972 में पहली बार तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने वन्यजीव संरक्षण अधिनियम पास कराया था। इसके बाद बाघ को संरक्षित प्रजातियों की सूची में डाल दिया गया।वर्ष 1972 में ही पहली बार बाघों की आधिकारिक गणना कराई गई थी जिसमें इनकी संख्या मात्र 1827 निकली। वर्ष 2001 में बाघों की संख्या में इजाफा नजर आया और उनकी आबादी 3642 बताई गई लेकिन छह साल के बाद जब इस वर्ष इनकी गणना हुई तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आए।राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण ने 2007 की गणना में इनकी संख्या सिर्फ 1300 से 1500 के बीच बताई है। हाल ही की गणना से पता चला है कि अकेले मध्य प्रदेश में 65 प्रतिशत बाघ धरती से विलुप्त हो गए हैं। छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और राजस्थान में क्रमश: 100-100 से भी कम बाघ बचे हैं।वन्यजीव विशेषज्ञों का कहना है कि बाघ की गिनती का काम उनके पंजों के निशान के आधार पर किया जाता है, लेकिन कई बार बाघ एक ही जगह से बार-बार गुजरते हैं जिससे उनके पंजों की संख्या बढ़ जाती है। इस कारण हो सकता है कि इनकी संख्या वर्तमान आंकड़े से और भी कम हो।

कैसे बचेगा मध्यप्रदेश का 'टाइगर स्टेट' का दर्जा



प्रदेश में वयस्क बाघों की संख्या 264 है और बच्चों को मिलाकर इनकी संख्या 336 है। यह भारतीय वन्यजीव संस्थान द्वारा पिछले साल की गई गणना पर आधारित आँकड़े हैं। हालाँकि वन्यजीव विशेषज्ञ अब भी मध्यप्रदेश के जंगलों को बाघों के हिसाब से सर्वश्रेष्ठ मानते हैं

भारत का हृदय स्थल मध्यप्रदेश अपने शानदार जंगलों और राष्ट्रीय पशु बाघ की 'दहाड़दार' मौजूदगी के कारण जाना जाता है। बाघों की शानदार आबादी के कारण मध्यप्रदेश को 'टाइगर स्टेट' का दर्जा मिला हुआ है। प्रदेश में आने वाले देशी-विदेशी पर्यटकों के लिए बाघ मुख्य आकर्षण का केन्द्र रहता है। कान्हा, बाँधवगढ़, पेंच, पन्ना और सतपुड़ा जैसी बाघ परियोजनाएँ और राष्ट्रीय उद्यान मध्यप्रदेश में हैं और यहाँ के आकर्षण में चार चाँद लगाते हैं।
NDलेकिन अब इन सब पर खतरे के बादल मँडरा रहे हैं। ठीक वैसे ही जैसे यहाँ के जंगलों पर संकट है। आजादी के बाद इस प्रदेश में जंगल जहाँ कुल भूभाग का 40 प्रतिशत से ज्यादा थे वहीं अब ये सिमटकर 20 प्रतिशत से भी कम रह गए हैं। यही हाल कुछ शानदार जानवर बाघ का भी हो रहा है। पिछले दशक के अंत तक मध्यप्रदेश में बाघों की संख्या 700 से भी ज्यादा थी। वहीं अब ये घटकर 300 के आसपास रह गए हैं।
प्रदेश में वयस्क बाघों की संख्या 264 है और बच्चों को मिलाकर इनकी संख्या 336 है। यह भारतीय वन्यजीव संस्थान द्वारा पिछले साल की गई गणना पर आधारित आँकड़े हैं। हालाँकि वन्यजीव विशेषज्ञ अब भी मध्यप्रदेश के जंगलों को बाघों के हिसाब से सर्वश्रेष्ठ मानते हैं
बारीकी से देखें तो प्रदेश में वयस्क बाघों की संख्या 264 है और बच्चों को मिलाकर इनकी संख्या 336 है। यह भारतीय वन्यजीव संस्थान द्वारा पिछले साल की गई गणना पर आधारित आँकड़े हैं। हालाँकि वन्यजीव विशेषज्ञ अब भी मध्यप्रदेश के जंगलों को बाघों के हिसाब से सर्वश्रेष्ठ मानते हैं लेकिन इस प्रदेश का वन विभाग और सरकार इस खूबसूरत जानवर को लेकर गंभीर नहीं है और इसे खोने पर तुली है। अब तो मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने भी प्रदेश सरकार से पूछ लिया है कि वो बाघों को बचाने के प्रति कितनी गंभीर है और इस दिशा में उसने क्या कदम उठाया। प्रदेश सरकार को हाईकोर्ट के इस प्रश्न का उत्तर देना अभी बाकी है। कहा जा सकता है कि अगर लापरवाही का यही हाल चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब मध्यप्रदेश अपने 'टाइगर स्टेट' का दर्जा खो बैठेगा। देशभर में हो रही है बाघों की संख्या में कमी : पिछले साल देश में बाघों की संख्या में उल्लेखनीय कमी दर्ज की गई थी। भारत के इतिहास में अब तक सबसे कम बाघ पिछले साल ही दर्ज हुए थे। 1997 में देश में जहाँ 3508 बाघ थे, वहीं दस साल बाद 2008 में इनकी संख्या घटकर मात्र 1411 हो गई। यह अभूतपूर्व कमी थी।
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने तुरंत कदम उठाते हुए देश में 'प्रोजेक्ट टाइगर' परियोजना शुरू करवाई थी। देश में अब 28 'प्रोजेक्ट टाइगर' रिजर्व हैं। इसके सकारात्मक परिणाम भी सामने आए थे और 1997 में बाघों की संख्या साढ़े तीन हजार से भी ज्यादा हो गई
यह संख्या 1972 में हुई बाघ गणना के आँकड़ों से भी कम थी जब देश में इस राष्ट्रीय पशु की संख्या घटकर महज 1827 रह गई थी। उस दौर में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने तुरंत कदम उठाते हुए देश में 'प्रोजेक्ट टाइगर' परियोजना शुरू करवाई थी। देश में अब 28 'प्रोजेक्ट टाइगर' रिजर्व हैं। इसके सकारात्मक परिणाम भी सामने आए थे और 1997 में बाघों की संख्या बढ़कर साढ़े तीन हजार से भी ज्यादा हो गई। 2001-02 में भी ये 3642 बनी रही लेकिन अंततः नई शताब्दी का पहला दशक इस धारीदार जानवर के लिए घातक सिद्ध हुआ और इस दशक के अंत तक ये सिमटकर सिर्फ 1411 रह गए। फरवरी 2008 में बाघों की यह गणना देशभर में भारतीय वन्यजीव संस्थान, देहरादून ने की थी। उल्लेखनीय है कि आजादी के ठीक बाद यानी 1947 में भारत में 40000 बाघ थे। बाघों की इस संख्या को लेकर भारत पूरी दुनिया में प्रसिद्ध था लेकिन बढ़ती आबादी, लगातार हो रहे शहरीकरण, कम हो रहे जंगल और बाघ के शरीर की अंतरराष्ट्रीय कीमत में भारी बढ़ोतरी इस खूबसूरत जानवर की जान की दुश्मन बन गई। सबसे ज्यादा मध्यप्रदेश में घटे : 2008 में हुई गणना से पहले मध्यप्रदेश वन विभाग प्रदेश में 700 से ज्यादा बाघ होने के दावे किया करता था लेकिन इस गणना के बाद उन सब दावों की हवा निकल गई और असली संख्या 264 से 336 सामने आई। भारतीय वन्यजीव संस्थान के अनुसार इस गणना में पता चला है कि सबसे ज्यादा बाघ मध्यप्रदेश में ही कम हुए हैं। कम होने या गायब होने वाले बाघों की संख्या 400 के आसपास है। आशंका जताई गई कि इनमें से ज्यादातर का शिकार कर लिया गया और उनके अंग दूसरे देशों को बेच दिए गए। 2009 इस जानवर के लिए और भी कड़ी परीक्षा वाला साबित होने वाला है क्योंकि शिकारियों की संख्या जहाँ लगातार बढ़ रही है वहीं बाघों की संख्या और उनका इलाका लगातार कम हो रहा है। पन्ना में हुआ घोटाला सामने आया : मध्यप्रदेश का राष्ट्रीय उद्यान पन्ना बाघों के खत्म होने का सबसे पहला प्रतीक बना है। 2007 में वन विभाग ने यहाँ 24 बाघ होने का दावा किया था। पिछले साल भारतीय वन्यजीव संस्थान की टीम ने यहाँ 8 बाघ होने की बात कही लेकिन रघु चंदावत जैसे स्वतंत्र बाघ विशेषज्ञ ने यहाँ सिर्फ एक बाघ की मौजूदगी बताई। बाघिन का यहाँ नामोनिशान तक नहीं मिला। वन्यजीव संस्थान के कैमरों में भी सिर्फ एक बाघ की तस्वीर आई। विशेषज्ञों के अनुसार ये अकेला बाघ यहाँ अपना परिवार नहीं बढ़ा पाएगा और पन्ना भी सरिस्का की राह चलकर अपने बाघों से हाथ धो बैठेगा। अब प्रदेश का वन विभाग सरिस्का की तर्ज पर यहाँ बाँघवगढ़ से एक बाघिन लाकर छोड़ने पर विचार कर रहा है ताकि ये बाघ-बाघिन प्रजनन कर अपनी आबादी बढ़ा सकें और ये राष्ट्रीय उद्यान 'बाघविहीन' होने से बच सके।इस बारे में मध्यप्रदेश के पीसीसीएफ और मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक एचएस पाबला कहते हैं कि हमने मध्यप्रदेश में बाघों की संख्या बढ़ाने की व्यापक कार्ययोजना बनाई है। हम इसके लिए प्रयासरत हैं। पन्ना में बाँधवगढ़ से बाघिन को लाकर छोड़ने की कार्ययोजना पर भी काम चल रहा है। इस साल हम बाघों की संख्या बढ़ाने में जरूर कामयाब होंगे।

विधानसभा में बाघ


भोपाल। मध्यप्रदेश विधानसभा में आज प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ने प्रदेश में बाघों की संख्या में कमी का मामला उठाया। वन राज्य मंत्री के जवाब से असंतुष्ट विधायकों ने नारेबाजी करते हुए दोषी अधिकारियों को बचाने का आरोप लगाते हुए सदन से वाकआउट किया।
यह मामला कांग्रेस के चौधरी राकेश सिंह, डा.गोविंद सिंह और अजय सिंह ने उठाया था।
उनका आरोप था कि बाघों के संरक्षण के लिए केन्द्र सरकार द्वारा पर्याप्त राशि दिए जाने के बावजूद राज्य सरकार गंभीर नहीं है और पन्ना टाइगर रिजर्व में अब एक भी बाघ नहीं बचा है।
वन राज्य मंत्री राजेन्द्र शुक्ला ने स्वीकार किया कि पन्ना टाइगर रिजर्व में पूरे प्रयासों के बावजूद बाघों की संख्या कम होती गई और मई 09 में भारतीय वन्यजीव संस्थान द्वारा किए गए आंकलन में कोई बाघ नहीं पाया गया।
उन्होंने कहा कि विभाग द्वारा पन्ना में बाघों की पुनस्र्थापना के लिए कार्रवाई शुरू कर दी गई है, जिसके तहत दो बाघिन अन्य राष्ट्रीय उद्यान से लाकर बसाई जा चुकी हैं। जबकि चार अन्य बाघ बाघिन को लाने की अनुमति भारत शासन से प्राप्त हो चुकी है।
शुक्ल ने बताया कि पन्ना टाइगर रिजर्व में बाघों की संख्या कम होने का मुख्य कारण वर्षो से बाघ प्रजनन का अभाव तथा नर मादा अनुमात में असंतुलन होना है।
उन्होंने कहा कि यद्यपि भारत शासन द्वारा गठित विशेष जांच समिति द्वारा अवैध शिकार को भी राष्ट्रीय उद्यानों में बाघों के खत्म होने का मुख्य कारण माना गया है।
उन्होंने बताया कि राज्य शासन द्वारा इस राष्ट्रीय उद्यान में बाघों के विलुप्त होने के जैविक तथा प्रशासनिक कारणों का अध्ययन करने के लिए तथा भविष्य में ऐसी परिस्थितियों की पुनरावृत्ति रोकने के लिए समिति का गठन किया गया है।
वन राज्य मंत्री ने इस संबंध में अधिकारियों के खिलाफ तत्काल निलंबन जैसी कार्रवाई करने से इंकार करते हुए कहा कि इस संबंध में गठित समिति की रिपोर्ट आने के बाद कार्रवाई की जाएगी।
शुक्ल ने बताया कि बाघों की गिनती में 18 माह तक के शावकों को शामिल नहीं किया जाता है। इसलिए शावकों की स्थिति बताना संभव नहीं है।
उन्होंने बताया कि केन्द्र सरकार प्रोजक्ट टाइगर के माध्यम से राज्य सरकार को राशि उपलब्ध कराती है और इस वर्ष 60 करोड़ रुपए की राशि मिली है। कांग्रेस के अजय सिंह का कहना था कि वर्ष 2003 में जब भाजपा की सरकार सत्ता में आई थी, तब प्रदेश में बाघों की संख्या 700 थी, लेकिन उचित संरक्षण के अभाव में बाघ कम होते गए और आगे भी यही स्थिति रही तो आने वाली पीढ़ी माफ नहीं करेगी।
सिंह ने कहा कि कुख्यात डकैत ठोकिया 16 माह से भी अधिक समय तक पन्ना टाइगर रिजर्व में रहा और उसी दौरान बाघों की संख्या में भारी कमी आई।
विपक्ष की नेता जमुना देवी ने राज्य सरकार के जवाब को असंतोषपूर्ण करार देते हुए कहा कि सरकार बाघों को बचाने की अपेक्षा दोषी अधिकारियों को बचाने में लगी है। इसी दौरान कांग्रेस सदस्यों ने प्लास्टिक के बैनर ओढ़ लिए, जिसमें बाघ के चित्र के दोनों तरफ मुझे बचाओ मुझे बचाओं लिखा हुआ था।
कांग्रेस सदस्यों ने सरकार पर दोषी अधिकारियों को बचाने का आरोप लगाते हुए सदन से वाकआउट किया। लेकिन विधान सभा अध्यक्ष ईश्वरदास रोहाणी ने कांग्रेस के प्लास्टिक के बैनर ओढ़ने के कृत्य पर अप्रसन्नता जताई।

बाघों की संख्या आधी


पाँच वर्षों में 400 से अधिक बाघ लापता हो चुकेभारत में बाघों की संख्या आधी हुई भारत सरकार ने बाघों की ताज़ा आंकड़े जारी किए हैं जिनके अनुसार बाघों की संख्या आधी हो गई है.राष्ट्रीय बाघ संरक्षण ऑथारिटी के सचिव राजेश गोपाल ने बताया,'' सन् 2002 के सर्वेक्षण में बाघों की संख्या 3500 आंकी गई थी लेकिन ताज़ा सर्वेक्षण के अनुसार भारत में 1411 बाघ बचे हैं.'' हालांकि सरकार का कहना है कि पिछले आंकड़े सही नहीं थे. राजेश गोपाल का कहना था कि इस बार बाघों की संख्या के लिए नया तरीका अपनाया गया. पिछली बार पैरों के निशान के आधार पर इनकी संख्या का निर्धारण किया गया था जिसमें चूक की गुजांइश थी. उनका कहना था,'' अब बाघ केवल देश के 17 राज्यों में पाए जाते हैं और वे केवल बाघ संरक्षित क्षेत्रों में ही पाए जाते हैं.''घटती संख्या पर चिंतामध्य प्रदेश में इनकी संख्या सबसे अधिक 300 है. उत्तराखंड में 178, उत्तर प्रदेश में 109 और बिहार में 10 बाघ होने का अनुमान हैं.इसी तरह आंध्र प्रदेश में 95, छत्तीसगढ़ में 26, महाराष्ट्र में 103, उड़ीसा में 45 और राजस्थान में 32 बाघ होने का आकलन किया गया है. इसके पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बाघों की कम होती संख्या पर चिंता प्रकट की थी और कहा था कि कि जंगलों पर जनसंख्या का दबाव कम करने के प्रयास किए जाएँ. इसके बाद बाघों की रक्षा के लिए भारत सरकार ने एक कार्यदल का गठन किया था और पर्यावरणविद् सुनीता नारायण को उसका प्रमुख बनाया गया था. अवैध शिकार और घटते जंगलों को इसका सबसे बड़ा कारण बताया जा रहा है लेकिन पिछले कुछ वर्षों में संरक्षण के उपायों के बावजूद बाघों की संख्या लगातार घट रही है. माना जा रहा है कि उल्लेखनीय है कि विश्व के 40 प्रतिशत बाघ भारत में रहते हैं.

आखिर बाघ बचें तो कैसे


आखिर बाघ बचें तो कैसे Name: Neeraj Nayyar

बाघों को बचाने के लिए कागजी और जुबानी तौर पर जितना काम किया जाता रहा है. अगर उसका एक प्रतिशत भी हकीकत में किया जाता तो शायद बाघों की घटती संख्या पर अंकुश लगाया जा सकता था.अब तक हमें सुकून था कि सरिस्का जैसे हालात कहीं और नहीं हैं. कम से कम मध्यप्रदेश में तो बिल्कुल नहीं लेकिन हाल ही में आई कुछ खबरों के बाद यह साफ हो गया है कि बाघों के लिए मशहूर मध्यप्रदेश का पन्ना टाइगर रिजर्व भी सरिस्का में तब्दील हो चुका है. यहां काफी समय से एक बाघ ही दिखाई दे रहा है. जबकि 2006 में की गई गणना में 24 बाघ होने की बात कही गई थी. 452 वर्ग किलोमीटर में फैले पन्ना राष्ट्रीय उद्यान में बाघों की घटती संख्या को लेकर कई बार आवाजें उठती रहीं लेकिन किसी ने उनपर गौर करना मुनासिब नहीं समझा. संबंधित अधिकारी सच को छुपाने में लगे रहे और धीरे-धीरे बाघों का सफाया होता गया. इसे सरकारी अमले की संवेदनशून्यता ही कहा जाएगा कि उसने एक बार भी ऐसी खबरों पर सर्तक होने की जहमत नहीं उठाई और अब बैठकें हो रही हैं, फटकार लगाई जा रही है, बांधवगढ़ से दो बाघिनों को लाकर बाघ बचाने की मुहिम के प्रति प्रतिबध्यता दशाई जा रही है लेकिन अब भी इस बात पर गौर नहीं किया जा रहा है कि आखिर ऐसी नौबत आई ही क्यों. यह केवल मध्यप्रदेश की बात नहीं है कामोबश पूरे देश का ऐसा ही हाल है. देश में हर साल टाइगर प्रोजेक्ट के नाम पर करोड़ों रुपए खर्च किए जाते हैं बावजूद इसके बाघों की संख्या खतरनाक तरीके से घटती जा रहा है. पिछले चार सालों के दरमां एक अरब 96 करोड़ का पैकेज बाघ संरक्षण के लिए जारी किया जा चुका है. लेकिन हकीकत हमारे सामने है. वर्ष 2001-2002 में हुई गणना में देश में 3652 बाघ होने के दावे किए गये. ताजा गणना में 60 प्रतिशत से अधिक की कमी के साथ इनकी संख्या 1500 के आस-पास बताई गई मगर मौजूदा हालातों को देखते हुए यह बिल्कुल नहीं कहा जा सकता कि देश में इतने बाघ भी बचे होंगे. मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, उडीसा, झारखंड में कुल 601 बाघ बचे हैं जिनमें से 300 सिर्फ मध्यप्रदेश में ही हैं. 2004 के दौरान मध्यप्रदेश में इनकी संख्या 700 के करीब हुआ करती थी. पर अब यहां के टाइगर रिजर्वों की हालत भी कुछ खास ठीक नहीं चल रही. पन्ना का सच सामने आ चुका है, कान्हा में भी स्थिति बिगड़ती जा रही है. बीते कुछ दिनों में यहां दो बाघों की रहस्यमय तरीके से मौत ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं. पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने 2002 में जो रिपोर्ट जारी की थी उसमें कान्हा में बाघों की संख्या 131 बताई गई थी लेकिन 2006-07 तक पहुंचते-पहुंचते यह आंकड़ा 89 तक सिमट गया और अब ऐसी आशंका है कि यहां भी ज्यादा बाघ नहीं बचे हैं. हाल ही में शिकार की कुछ घटनाओं से बाघ संरक्षण के नाम पर किए जा रहे राज्य स्तरीय बड़े-बड़े दावों की असलीयत सामने आ चुकी है. बाघ सरंक्षण के प्रति सरकार की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि फॉरेस्ट गार्ड के बहुत से पद अब भी खाली पड़े हैं. सच तो यह है कि वन एवं पर्यावरण विभाग इस चुनौती से निपटने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं है. कर्मचारियोंको न तो पर्याप्त ट्रेनिंग दी जाती है और न ही उनके पास पर्याप्त सुविधाएं हैं. शिकारी अत्याधुनिक हथियारों का प्रयोग कर रहे हैं जबकि वन्य प्राणियों की हिफाजत का तमगा लगाने वालों के पास वो ही पुराने हथियार हैं. हालात ये हो चले हैं कि अधिकतर अधिकारी महज अपनी नौकरी बचाने के लिए काम कर रहे हैं. उनमें न तो वन्यजीवों के प्रति कोई संवेदना है और न ही काम के प्रति कोई लगाव. यही कारण है कि रोक के बावजूद बाघों का शिकार बड़े पैमाने पर जारी है. संगठित आपराधिक गिरोह वन्यजीवों की खाल की तस्करी में लगे हुए हैं. थोड़े से पैसे के लिए कहीं-कहीं वन विभाग के लोग भी इनकी मदद में शरीक हो जाते हैं. बाघों को बचाने के लिए स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिहं पहल कर चुके हैं. कई समीतियां बनाई गईं हैं, कई प्रोजेक्ट चलाए गये हैं मगर इस दुर्लभ प्राणी के अस्तित्व की टूटती डोर को थामने वाले सार्थक नतीजे अब तक सामने नहीं आ पाए हैं. जंगलों का सिमटना और उसमें मानवीय दखलंदाजी बदस्तूर जारी है. नतीजतन बाघों की रिहाइश वाले इलाकों में ही बाघों की संख्या घटती जा रही है. जंगल में पर्याप्त भोजन का आभाव हो चला है जिसके चलते बाघ गांवों का रुख कर रहे हैं और क्रूर इंसान के हाथों मारे जा रहे हैं. महज चंद दिनों में ही इसके बहुत से मामले सामने आ चुके हैं. उत्तर प्रदेश में दो बाघों को मारने की कोशिश चल रही है क्योंकि भूख की तड़पन में उनसे मानव का शिकार हो गया, वन विभाग खुद मोर्चा संभाला हुआ है. जंगल के राजा को जंगल में घेरकर मारने की कवायद से जंगल के बाशिंदे सहमे हुए हैं. कुछ समय पहले कुछ चीतों को भी मानव के हाथों मौत मिली थी, उनका कसूर भी इतना था कि वो भूख बर्दाश्त नहीं कर पाए और बस्तियों की तरफ रुख कर बैठे. बाघ जंगल से बाहर आते हैं तो लोगों द्वारा मार दिए जाते हैं. जंगल में रहते हैं तो शिकारियों का शिकार बन जाते हैं. संरक्षण ग्रहों में संरक्षण के नाम पर उनकी जिंदगी से जुआ खेला जा रहा है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर यह प्राणी बचे तो कैसे. सरकार भले ही इस बात को स्वीकार न करे मगर सच यही है कि जितनी तेजी से बाघों के घर सुरक्षित करने की योजनाएं परवान चढ़ी, जंगलों को टाइगर रिजर्व घाषित किया गया. उतनी ही तेजी से बाघ तस्करों के लालच और सरकार की सुस्ती का शिकार होते गये. जितनी तेजी से देश में बाघों की संख्या घट रही है उससे वो दिन दूर नहीं जब हमें राष्ट्रीय पशु के लिए किसी और जानवर को चुनना होगा. एक संस्था ने हाल ही में ऐसा कैंपेन चलाकर बाघों के मिटते अस्तित्व की तरफ ध्यान खींचने की कोशिश की है लेकिन उसकी यह कवायद कोई खास असर छोड़ पाएगी इसकी संभावना कम ही दिखाई पड़ती है. क्योंकि एक आम आदमी से लेकर देश की सर्वोच्च कुर्सी पर बैठा व्यक्ति भी इस बात से अच्छी तरह वाकिफ है कि बाघ विलुप्ती के कगार पर हैं. लेकिन फिर भी बाघ सरंक्षण के नाम पर जुबान जमा खर्ची के अलावा कुछ नहीं किया जा रहा. इस दिशा में ठोस और गंभीर कदम उठाने की दरकार अब भी कायम है.

Crisis of Agriculture, Poverty and health

I had initially intended to spend a fortnight touring Chhattisgarh specifically to find out why the Bharatiya Janata Party (BJP) has continually managed to win elections over the past few years. However due to some other commitments that came up suddenly I could not do so and could make only a short visit of three days. I found that a combination of the National Rural Employment Guanrantee Scheme (NREGS) and the supply of rice at Rs 3 a kilogram to the poor have indeed benefited a fairly large section of the populace(due to leakages in both schemes it is not only the absolute poor who have profited but also others. In fact when I was coming back from Chhattisgarh there was a person on the train with me who was taking along a quintal of such rice that he had purchased at Rs 12 a kilogram in black from a ration shop and he was a lower middle class person. Given the extreme poverty prevailing in Chhattisgarh as brought out by National Sample Survey data it is not surprising that the populist scheme has had an effect despite the overall situation being bad. The population affected by the government sponsored Salwa Judum movement against the Maoists and the ill effects of pollution and displacement due to various mining and industrial projects is comparatively much smaller. The tremendous factionalism in the Congress party which is really mind boggling from whatever little I could gather from this short visit prevented it from taking credit for the NREGS which went to the BJP instead. The social movements have all lost their earlier strength and so there is not enough mobilisation on the issue of agricultural distress which is the main issue in Chhattisgarh. In a meeting held at Ratanpur the old capital of the Gond and later Haihay kings of Chhattisgarh farmer after farmer came up with detailed critiques of the crisis of agriculture and water resources and also what should be done to remedy the situation. The meeting on agriculture and water at Ratanpur on the 7th of June 2009 was held under the aegis of various organisations and the forum of farmers called Krishak Biradari had about fifty participants. The most notable thing to come out of the meeting was the deep frustration of the farmers with the prevailing sorry state of agriculture. All the farmers who spoke were relatively bigger landholders and all of them categorically stated that with the current scenario of costs of inputs and prices of outputs there was no way in which farming could be profitable. Concern was also expressed regarding the excessive extraction of ground water for industry and agriculture and also the indiscriminate acquisition of land for mining and industrial projects and the consequent pollution. The culpability of the government in failing to control these negative tendencies also came in for a lot of criticism. It was generally felt that the lack of a strong farmer's movement in Chhattisgarh was the main reason for their sorry plight. The upshot of the day long deliberations was that a set of resolutions were passed regarding the amelioration of this situation and a programme was drawn up for holding more such meetings in other rural areas of Chhattisgarh to raise the awareness of farmers in particular and civil society in general under the aegis of Krishak Biradari so as to build up a people's movement for the improvement of the agriculture and water situation in the state. I personally enjoyed the meeting immensely and was especially thrilled when towards the end, at the time of the resolutions being finalised, two very old farmers who had earlier remained silent suddenly burst out in anger and held forth at length disregarding all appeals to keep quiet from the organisers who tried to convince them that their concerns had been taken into consideration. One of these venerable old men dressed in a traditional dhoti and kurta imperiously waved away the mike which was offered to him and instead relied on the strength of his vocal chords to express his anger. Finally while returning to Bilaspur we went to visit the ruins of the fort which used to be the seat of the Gond Kingdom of Chhattisgarh. Ve Khandhar aaj bhi bata rahe hai ki Gondon ki Imarat kitni buland thi par aaj ke hukumrano ko inke hifazat ko padi nahi hai kyonki unhe vartaman chhatisgarh ko bhi khandhar mein badalne ki jaldi hai.Ratanpur has as many as 256 tanks and these have been witness to more than a thousand years of history. They were first constructed by the Gond kings who cleverly harvested the water that came running down from the hills nearby. Such is the efficacy of this water harvesting system that despite last year having been one that was heavily deficient in rainfall there is no water shortage in this town which gets a lot of tourists due to its being a religious centre of importance. I ended my visit to Chhattisgarh with a trip to the Jan Swasthya Sahayog (JSS) hospital in Ganiyari village where a team of doctors from the All India Institute of Medical Sciences has set up a health delivery system for the rural poor that has become a legend. This trip very startlingly brought home to me the direct connection between the crisis of agriculture and health. A considerable proportion of the poor patients coming to the hospital for treatment are suffering from diabetes with post prandial sugar levels of more than 400. now diabetes is categorised as a life style disease brought about by over eating and under working. But here is a situation in which poor people dependent on subsistence agriculture or agricultural labour, who are undernourished and over worked, are reporting a high incidence of diabetes. When the doctors at JSS began investigating the cause of this they came to the conclusion that this was because of chronic hunger. The unborn baby in the womb does not get adequate nutrition because the pregnant mother is undernourished and so its pancreas is underdeveloped when it is born. thus from birth itself the amount of insulin being produced is less and slowly the situation aggravates so that after some time the person becomes diabetic. This is indeed a frightening prospect. Yet another disturbing fact analysed by the JSS team is that of the spread of anti-biotic resistance through the passing of stool in the open. Due to indiscriminate and irrational prescription of anti-biotics by both quacks and registered medical practitioners bacteria causing dreaded diseases develop resistance to anti-biotics. The resistant bacteria are then passed out in the faeces which contaminate the surface and ground water. this water is then drunk without purification by others and they too get filled with these resistant bacteria leading to general obsolescence of anti-biotics and this is probably the cause of the spread of epidemics of all kinds which are then untreatable. Finally there is the issue of the spread of a kind of leprosy that affects the nerves and does not manifest itself overtly till well advanced. this kind of leprosy is not treatable by the standard Multi Drug Therapy (MDT) medicines and requires a much more expensive treatment regime. This disease too is very widely prevalent in Bilaspur and other areas of Chhattisgarh. But both the national and state governments are turning a blind eye to this serious problem. The worst and most depressing part of this whole scenario is the woeful lack of awareness in the populace in general about this deep linkage between poverty and health. the government looks askance at the JSS for having exposed this and creates problems of all kinds in its operation.

Children and Poverty

Children too are sufferers of poverty. The most virulent problem faced by children even before they are born is that of malnutrition. Since most poor women are anaemic and cannot afford to take nutritive food in adequate quantities and also medical supplements during pregnancy the foetus' growth in the womb is affected adversely. Thus most infants born to mothers coming from poor families are underweight. After birth too these infants are ill nourished because the mothers have insufficient milk of their own and are not able to provide supplementary milk and other food. Consequently there exists severe malnutrition among the children of the poor. This in turn makes their immune systems weak and so they tend to be more easily afflicted by diseases like cholera, gastro-enteritis, pneumonia and malaria often leading to death. There has over the month of September 2008 been a campaign in the newspapers in Madhya Pradesh over the series of deaths of adivasi children in the districts of Sheopur, Satna and Khandwa. Initially the response of the government was to deny that these deaths were due to starvation. However as the pressure mounted on the government and the High Court issued notices to it after a public interest litigation was filed the government sprang into action and sent in teams of doctors to stem the tide of infant deaths. Investigations revealed that the malfunctioning of the National Rural Employment Guarantee Scheme and the Integrated Child Development Scheme had led to this sorry state of affairs. Even if most infants do survive they live in chronic hunger and thus there growth is stunted. So even when they become adults they continue to be mostly underweight and short.The other major handicap that children from poor families face is in education. Poverty forces parents to put their children to work rather than sending them to school. Even if some poor people would like to send their children to school they do not have access to free education. The government schools in rural areas in Madhya Pradesh are mostly either non-functional or are run by single teachers who are incapable of providing quality education. In urban areas government schools are slowly folding up. At a time when school education is becoming more and more complicated poor children attending government schools are severely handicapped vis a vis the children of the rich who attend expensive private schools. In fact the government schools are only partially free as the students have to bear the other expenses of education apart from the school fees. For quality education these additional expenses are quite substantial. While there is talk of making primary and secondary education free this is restricted to doing away with only the school fees without any provisions for the associated expenses of education in the form of books, exercise books, pencils and the like.The students of Adharshila School in Sendhwa set up to provide quality education to adivasis have to spend on an average about two hundred rupees a month on their education even after there being a considerable amount of subsidy in the form of teachers' and administrators' fees. Moreover the hostelers are not always able to pay in full the hostel and mess fees and so some subsidy has to be provided for this also. Another school being run for adivasis in Kakrana village in Alirajpur district too faces the same problem. A boy from this school in Alirajpur secured 82% marks in the secondary school examinations at the class ten level in 2008. He has now been brought to Indore to pursue his studies in a private school and to prepare him for competitive entrance examinations for elite engineering institutes. The cost of schooling and coaching is coming to about rupees 2500 per month. This is apart from the cost of living expenses. This is an exorbitant sum that his parents cannot afford under any circumstances and he is able to get this kind of education only because of grant support. Thus poverty effectively closes the door to quality education for children of the poor.Thus malnutrition and poor education are the two very serious problems facing the children of the poor and there seems to be no solution in sight. The students of the Adharshila school conducted a survey on the causes of malnutrition by trying to enumerate the extent of the loss of bio diversity in the Sendhwa region over time. They found that there had been a significant reduction in the intake of nutritious food due to the disappearance of various agricultural crops and herbs and fruits. The change in agriculture from a diversified subsistence regime to a mono-cropped commercial regime combined with massive deforestation was to blame for this. These are all manifestations of a profit oriented global economic system that externalises the social and environmental costs of such profit making. The picture below shows the children of Adharshila school working on a plot of vegetables that they have planted in the school campus.

Health is Wealth

Life is not merely to be alive but to be healthy and wealthy. Virgil says that " The greatest wealth is health" A Spanish proverb says that " A man who is too busy to take care of his health is like a mechanic too busy to take care of his tools". Two things which is always on our mind is Health and Wealth. They are of utmost importance to all of us. Health and Wealth decide the quality of life we lead. If we want to lead a happy life, wealth and health are both important. Wealth is the ability of fully experiencing life. It is true that wealth will not make a person good, but there is nobody who wants to be poor, just for being good. And as Benjamin Franklin says "Wealth is not his, that has it, but his that enjoys it".However, there is a tendency of large number of people to run after wealth. They work to gather more and more wealth. In the process they ignore their health. They do not take care in eating food at the right time. In the process of gathering more wealth, they also undergo a lot of stress.So many people spend their health in gaining wealth and then spend their wealth to regain their health.Money can buy a tonic but not health, we have to do a number of things to maintain our health . Now because of lack of exercises and proper food and stress the wealth may increase but health begins to suffer. It has been proved that overwork without care for health leads to a number of diseases. Disease like stomach ulcer, obesity are due to bad eating habits. Lack of exercises and stress leads to high cholesterol, Blood pressure and heart problems. So it is better to take care of your health.If we have health, we probably will be happy and if we have both health and happiness we have all the wealth we need. Health and intellect are two blessings of life. Happiness lies first of all in health.Mahatma Gandhi says that it is health that is the real wealth and not pieces of gold and silver.Taking care of one's health should be a continuous process. We should follow a routine of exercises and proper food. It is said that exercise if perused continuously help us to gain strength. We should also follow a diet that is beneficial for our health. Going on diet does not mean limiting your food. We should aim at improving the quality of our food intake.Buddha says that the secret of health for both mind and body is not to mourn the past but to live in the present moment wisely and earnestly. An Arabian proverb says that he who has health has hope and he who has hope has everything.To get rich never risk your health. For it is the truth that " HEALTH is the WEALTH of all WEALTH"

हिंदी पत्रकारिता का आरंभिक काल अब भी स्पष्ट नहीं

हिंदी पत्रकारिता का आरंभिक काल अब भी स्पष्ट नहीं
लखनऊ। हिंदी पत्रकारिता के आरंभिक काल पर अब भी रहस्य का पर्दा पडा हुआ है और भविष्य में यदि इस बारे में सचित्र प्रमाण मिले तो फिर हिंदी पत्रकारिता दिवस भी बदल सकता है।
यह रहस्योद्घाटन लखनऊ विश्वविद्यालय के लोक प्रशासन विभाग में शोधरत यशोवर्धन तिवारी ने अपने एक शोध पत्र में किया है। उन्होंने सोमवार को यहां एक बातचीत के दौरान बताया कि हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में 30 मई का विशेष महत्व है। वर्ष 1826 में 30 मई को कोलकाता से हिंदी का प्रथम समाचार पत्र उदन्त मार्तण्ड प्रकाशित हुआ था।
उन्होंने बताया कि यह एक बहस का मुद्दा है कि क्या उदन्त मार्तण्ड वास्तव में हिंदी का प्रथम समाचार पत्र था। उन्होंने कहा कि यदि इस प्रश्न का उत्तर नकारात्मक सिद्ध हो जाता है तो हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में बदलाव आवश्यक हो जाएगा। इसके प्रारंभिक काल का पुन: लेखन करना होगा। उन्होंने बताया कि ऐसे साक्ष्य उपलब्ध हैं जो यह संकेत करते हैं कि उदन्त मार्तण्ड के प्रकाशन अर्थात 30 मई 1826 के पहले भी हिंदी में पत्रों का प्रकाशन प्रारम्भ हो गया था।
तिवारी ने बताया कि ले. कर्नल जेम्स टॉड ने अपनी पुस्तक एनल्स एण्ड एन्टीक्विटीज ऑफ राजस्थान और द सेंट्रल एण्ड राजपूत स्टेट्स ऑफ इंडिया में बूंदी रियासत के (अखबार) का उल्लेख किया है। इसमें अखबार के 18 अक्टूबर 1820 के अंक का भी उल्लेख किया गया है।
उन्होंने बताया कि इस ग्रन्थ में एक अन्य स्थान पर बूंदी रियासत के (कोर्ट जर्नल) का उल्लेख मिलता है। टॉड लिखते हैं कि बूंदी नरेश राव राजा बिशन सिंह ने अपने छोटे से साम्राज्य के निरंकुश शासक थे। वह इस मत के थे कि शासित वर्ग, विशेष रूप से नौकरशाही से सम्मान प्राप्त करने के लिए भय एक अनिवार्य प्रोत्साहक का काम करता है।
तिवारी ने बताया कि यदि बूंदी के (कोर्ट जर्नल) का विश्वास किया जाए तो बूंदी नरेश का अपने वित्त मंत्री (जो राज्य के प्रधानमंत्री भी थे) के प्रति बर्ताव निश्चित रुप से मौके पर उपस्थित लोगों के लिए दिलचस्प रहा होगा।
तिवारी ने बताया कि बूंदी के (कोर्ट जर्नल) के प्रकाशन काल तथा उसकी भाषा की कोई जानकारी कर्नल टॉड नहीं देते हैं, लेकिन उक्त अध्याय में वे राव राजा बिशन सिंह के साथ 10 फरवरी 1818 को की गई संधि के संबंध में लिखते हैं। यहां यह भी उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि ले. कर्नल टॉड पश्चिमी राजपूत रियासतों में ईस्ट इंडिया कंपनी के राजनीतिक एजेंट के रूप में तैनात थे। वे यह भी बताते हैं कि राव राजा बिशन सिंह के निधन के पश्चात उनके पुत्र राम सिंह अगस्त 1821 में बूंदी के राजसिंहासन पर आरूढ हुए थे। उन्होंने कहा कि इससे यह तो निश्चित है कि जिस (कोर्ट जर्नल) का टॉड ने वर्णन किया है उसका प्रकाशन फरवरी 1818 से अगस्त 1821 के दौरान हुआ होगा। उन्होंने बताया कि जिस प्रकार यह स्पष्ट नहीं है कि (कोर्ट जर्नल) की भाषा क्या थी, ठीक उसी प्रकार बूंदी के अखबार की भाषा के संबंध में जानकारी अनुपलब्ध है क्योंकि इस सन्दर्भ में भी टॉड का वर्णन मौन है। जहां तक कोर्ट जर्नल की भाषा का प्रश्न है तो उस संबंध में एक मत यह भी है कि चूंकि बूंदी हिंदी भाषी प्रदेश है इसलिए यह मान लेना गलत न होगा कि यह पत्र हिंदी में ही निकलता था।
उदन्त मार्तण्ड के प्रकाशन के पूर्व हिंदी पत्रकारिता की किरणों के प्रस्फुटित होने का एक अन्य संकेत भी उपलब्ध है। उन्होंने बताया कि वेद प्रताप वैदिक द्वारा संपादित (हिंदी पत्रकारिता के विविध आयाम) के द्वितीय खण्ड में बंगाल प्रांत में बैपटिस्ट मिशनरियों द्वारा निकाले गए मासिक पत्र दिग्दर्शन की जानकारी मिलती है।
तिवारी ने बताया कि हुगली जिले में श्रीरामपुर से अप्रैल 1818 में बैपटिस्ट मिशनरियों ने एक मासिक पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया जिसका नाम दिग्दर्शन था। अप्रैल 1818 से अप्रैल 1820 के दौरान दिग्दर्शन के कुल 16 अंक अंग्रेजी और बंगला में प्रकाशित हुए। उन्होंने बताया कि प्रकाशकों ने हिंदी में भी इस मासिक पत्र को निकालने का निर्णय लिया और दिल्ली से आदमी लाकर इसके तीन अंक निकाले गए। उन्होंने बताया कि हिंदी दिग्दर्शन के तीन अंक कब प्रकाशित हुए इसकी जानकारी उपलब्ध नहीं है। चूंकि अंग्रेजी तथा बंगला भाषी दिग्दर्शन के कुल 16 अंक अप्रैल 1818 से 1820 के दौरान प्रकाशित हुए और इसी अवधि में ही हिंदी के अंक निकालने की बात सोची गई तथा तीन अंक निकाले भी गए। इससे यह प्रतीत होता है कि हिंदी मासिक दिग्दर्शन का प्रकाशन काल भी अप्रैल 1818 से अप्रैल 1820
के मध्य का रहा होगा। उन्होंने बताया कि बूंदी के कोर्ट जर्नल वहां से निकले अखबार तथा श्रीरामपुर, हुगली, से प्रकाशित दिग्दर्शन के अंकों की अनुपलब्धता के परिणामस्वरुप आज भी हिंदी पत्रकारिता के आरंभिक काल पर एक आवरण है। हो सकता है कि भविष्य में यदि इनमें से किसी एक का भी सचित्र प्रमाण मिले तो फिर इतिहास को बदलना होगा और शायद हिंदी पत्रकारिता दिवस को भी।

उदंत मार्तण्ड

उदंत मार्तण्ड

उदन्त मार्तण्ड हिंदी का प्रथम समाचार पत्र था । मई, १८२६ ई. में कलकत्ता से एक साप्ताहिक के रूप में इसका प्रकाशन शुरू हुआ। कलकत्ते के कोलू टोला नामक महल्ले के ३७ नंबर आमड़तल्ला गली से जुगलकिशोर सुकुल ने सन् १८२६ ई. में उदंतमार्तंड नामक एर हिंदी साप्ताहिक पत्र निकालने का आयोजन किया। इसके संपादक भी श्री जुगुलकिशोर सुकुल ही थे। वे मूल रूप से कानपुर निवासी थे।यह पत्र पुस्तकाकार (१२x८) छपता था और हर मंगलवार को निकलता था। इसके कुल ७९ अंक ही प्रकाशित हो पाए थे कि डेढ़ साल बाद दिसंबर, १८२७ ई में बंद हो गया।इसके अंतिम अंक में लिखा है- उदन्त मार्तण्ड की यात्रा- मिति पौष बदी १ भौम संवत् १८८४ तारीख दिसम्बर सन् १८२७ ।
आज दिवस लौं उग चुक्यौ मार्तण्ड उदन्त
अस्ताचल को जात है दिनकर दिन अब अन्त ।
उन दिनों सरकारी सहायता के बिना किसी भी पत्र का चलना असंभव था। कंपनी सरकार ने
मिशनरियों पत्र को डाक आदि की सुविधा दे रखी थी, परंतु चेष्टा करने पर भी "उदंत मार्तंड" को यह सुविधा प्राप्त नहीं हो सकी। उस समय अंग्रेजी, फारसी और बांग्ला में तो अनेक पत्र निकल रहे थे किंतु हिंदी में एक भी पत्र नहीं निकलता था। इसलिए "उदंत मार्तड" का प्रकाशन शुरू किया गया। इस पत्र में ब्रज और खड़ीबोली दोनों के मिश्रित रूप का प्रयोग किया जाता था जिसे इस पत्र के संचालक "मध्यदेशीय भाषा" कहते थे।
पत्र की प्रारम्भिक विज्ञप्ति
प्रारंभिक विज्ञप्ति इस प्रकार थी - "यह "उदंत मार्तंड" अब पहले-पहल हिंदुस्तानियों के हित के हेत जो आज तक किसी ने नहीं चलाया पर अंग्रेजी ओ पारसी ओ बंगाल में जो समाचार का कागज छपता है उनका सुख उन बोलियों के जानने और पढ़नेवालों को ही होता है। इससे सत्य समाचार हिंदुस्तानी लोग देख आप पढ़ ओ समझ लेयँ ओ पराई अपेक्षा न करें ओ अपने भाषे की उपज न छोड़े। इसलिए दयावान करुणा और गुणनि के निधान सब के कल्यान के विषय गवरनर जेनेरेल बहादुर की आयस से ऐसे साहस में चित्त लगाय के एक प्रकार से यह नया ठाट ठाटा..."।

भारत में अंग्रेज़ों के गुलामी शासन के विरुद्ध शंख-नाद के रूप में ही पत्रों का उदय और विकास हुआ था । भारतीय पत्रकारिता की जननी वंगभूमि ही है । हिंदी पत्रकारिता का जन्म और विकास भी वंगभूमि में ही हुआ । भारतीय भाषाओं में पत्रों के प्रकाशन होने के साथ ही भारत में पत्रकारिता की नींव सुदृढ़ बनी थी । इसी बीच हिंदी पत्रकारिता का भी उदय हुआ । यह उल्लेखनीय बात है कि हिंदी पत्रकारिता का उद्गम स्थान बंगाली भाषा-भाषी प्रदेश (कलकत्ता) रहा । भारत में समाचारपत्रों के प्रकाशन का श्रीगणेश अभिव्यक्ति की आज़ादी की उमंगवाले विदेशी उदारवादियों ने किया । इसके पूर्व ही पश्चिमी देशों तथा यूरोपीय देशों में पत्रकारिता की महत्ता को स्वीकारा गया था। हिक्की या बंकिघम के आरंभिक साहसपूर्ण प्रयासों से भारत में पत्रकारिता की नींव पड़ी थी । वैसे वहाँ शिलालेखों, मौखिक आदि रूपों में सूचना संप्रेषण का दौर बहुत पहले शुरू हुआ था, पर आधुनिक अर्थों में पत्रकारिता का उदय औपनिवेशिक शासन के दौरान ही हुआ । अंग्रेज़ी शिक्षा की पृष्ठभूमि पर ही जेम्स अगस्टस हिकी के आरंभिक प्रयास 'हिकीज़ बंगाल गज़ट' अथवा 'कलकत्ता जेनरल अडवर्टैज़र' के रूप में फलीभूत हुआ था । देशी पत्रकारिता के जनक राजा राममोहन राय माने जाते हैं । भारतीय विचारधारा और दर्शन के मर्मज्ञ विद्वान होने के साथ-साथ प्राचीन-नवीन सम्मिश्रण के एक विशिष्ट व्यक्तित्व के रूप में उभरकर उन्होंने एक स्वस्थ परंपरा का सूत्रपात किया । उस समय तक के भारतीय परिवेश में आधुनिक आध्यात्मिकता का स्वर भरनेवाले रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, रवींद्रनाथ ठाकुर, श्री अरविंद आदि मनीषियों से भारतीय सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में जानजागृति और संप्रेषण माध्यम रूपी पत्रकारिता का उदय हुआ था ।
अंग्रज़ों की स्वार्थपूर्ण शासन के दौर में ही भारतीय भाषा पत्रकारिता की नींव भी पड़ी थी । जन चेतना का संघर्षपूर्ण स्वर उभारने के लक्ष्य से ही पत्रकारिता का उदय हुआ । पत्रकारिता के उद्भव की स्थितियों एवं कारणों का वर्णन करते हुए डॉ. लक्ष्मीकांत पांडेय ने लिखा है – "पत्रकारिता किसी भाषा एवं साहित्य की ऐसी इंद्रधनुषी विधा है, जिसमें नाना रंगों का प्रयोग होने पर भी सामरस्य बना रहता है । पत्रकारिता, जहाँ एक ओर समाज के प्रत्येक स्पंदन की माप है, वहीं विकृतियों की प्रस्तोता, आदर्श एवं सुधार के लिए सहज उपचार । पत्रकारिता जहाँ किसी समाज की जागृति का पर्याय है, वहीं उसमें उठ रही ज्वालामुखियों का अविरल प्रवाह उसकी चेतना का प्रतीक भी है । पत्रकारिता एक ओर वैचारिक चिंतन का विराट फलक है, तो दूसरी ओर भावाकुलता एवं मानवीय संवेदना का अनाविल स्रोत । पत्रकारिता जनता एवं सत्ता के मध्य यदि सेतु है तो सत्ता के लिए अग्नि शिखा और जनता के लिए संजीवनी । अतः स्वाभाविक है कि पत्रकारिता का उदय उन्हीं परिस्थितियों में होता है, जब सत्ता एवं जनता के मध्य संवाद की स्थिति नहीं रहती या फिर जब जनता अंधेरे में और सत्ता बहरेपन के अभिनय में लीन रहती है ।"

ईस्ट इंडिया कंपनी की दमननीति के विरुद्ध आवाज के रूप में स्वाधीनता की प्रबल उमंग ने पत्रकारिता की नींव डाली थी । उसके फलीभूत होने के साथ स्वदेशी भावना का अंकुर भी उगने लगा । कलकत्ता में भारतीय भाषा पत्रकारिता के उदय से इन भावनाओं को उपयुक्त आधार मिला था । इस परंपरा में कलकत्ता के हिंदी भाषियों के हृदय में भी पत्रकारिता की उमंगे उगने लगीं । अपनी भाषा के प्रति अनुराग और जनजागृति लाने के महत्वकांक्षी पं. जुगल किशोर शुक्ल के साहसपूर्ण आरंभिक प्रयासों से हिंदी पत्रकारिता की नींव पड़ी । कलकत्ते के कोलू टोला नामक महल्ले के 37 नंबर आमड़तल्ला गली से जुगल किशोर शुक्ल ने सन् 1826 ई. में उदंतमार्तंड नामक एर हिंदी साप्ताहिक पत्र निकालने का आयोजन किया । यहाँ यह भी विवेचनीय बात है कि 'उदंत मार्तंड' से पहले भी हिंदी पत्रों के प्रकाशन होने के संदर्भ में कई तर्क हैं । पर इन तमाम तर्कों के बावजूद प्रथम मौलिक हिंदी पत्र के रूप में कई इतिहासकारों द्वारा 'उदंत मार्तंड' ही मान्य है । 30 मई, 1826 हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में उल्लेखनीय तिथि है जिस दिन सर्वथा मौलिक प्रथम हिंदी पत्र के रूप में 'उदंत मार्तंड' का उदय हुआ था । इसके संपादक और प्रकाशक भी कानपुर के जुगल किशोर ही थे । साप्ताहिक 'उदंत मार्तांड' के मुख्य पृष्ठ पर शीर्षक के नीच जो संस्कृत की पंक्तियाँ छपी रहती थीं उनमें प्रकाशकीय पावन लक्ष्य निहित था । पंक्तियाँ यों थीं –
"दिवा कांत कांति विनाध्वांदमंतं
न चाप्नोति तद्वज्जागत्यज्ञ लोकः ।
समाचार सेवामृते ज्ञत्वमाप्तां
न शक्नोति तस्मात्करोनीति यत्नं ।।"

महत्वकांक्षा और ऊँचे आदर्श से पं. जुगल किशोर ने 'उदंत मार्तंड' का प्रकाशन आरंभ किया था, पर सरकारी सहयोग के अभाव में, ग्राहकों की कमी आदि प्रतिकूल परिस्थितियों में 4 दिसंबर, 1827 को ही लगबग डेढ़ साल की आयु में हिंदी का प्रथम पत्र का अंत जिस संपादकीय उद्घोष के साथ समाप्त हुआ, वह आज भी हिंदी पत्रकारिता के संघर्षपूर्ण अस्तित्व के प्रतीकाक्षरों की पंक्तियों के रूप में उल्लेखनीय हैं–
"आज दिवस लौं उग चुक्यौ मार्तंड उदंत ।
अस्ताचल को जात है दिनकर दिन अंत ।।"

पं. जुगल किशोर शुक्ल ने अपनी आंतरिक व्यथा को समेट कर उक्त पंक्तियों की अभिव्यक्ति दी थी। इसके बाद कई प्रयासों से धीरे-धीरे हिंदी पत्रों का प्रकाशन-विकास होता रहा । इसी परंपरा में जून, 1854 में कलकत्ते से ही श्याम सुंदर सेन नामक बंगाली सज्जन के संपादन में हिंदी का प्रथम दैनिक पत्र प्रकाशित हुआ था । हिंदी पत्रकारिता की जन्मभूमि होने का गौरव-चिह्न कलकत्ते के मुकुटमणि के रूप में सदा प्रेरणा की आभा देते हुए हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में उल्लेखनीय है । कलकत्ता से बाहर हिंदी प्रदेश से निकलनेवाला हिंदी पत्र 'बनारस अख़बार' था, जिसका प्रकाशन 1845 ई. में काशी में आरंभ हुआ था । हिंदी पत्रकारिता पर 1857 के प्रथम स्वाधीनता-संग्राम का भी पर्याप्त प्रभाव पड़ा था ।

आरंभिक हिंदी पत्रकारिता के उन्नायकों के संदर्भ में डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र के विचार महत्वपूर्ण एवं स्मरणीय हैं – "स्मरणीय है कि हिंदी-पत्रकारिता के आदि उन्नायकों का आदर्श बड़ा था, किंतु साधन-शक्ति सीमित थी । वे नई सभ्यता के संपर्क में आ चुके थे और अपने देश तथा समाज के लोगों को नवीनता से संपृक्त करने की आकुल आकांक्षा रखते थे । उन्हें न तो सरकारी संरक्षण और प्रोत्साहन प्राप्त था और न तो हिंदी-समाज का सक्रिय सहयोग ही सुलभ था । प्रचार-प्रसार के साधन अविकसित थे । संपादक का दायित्व ही बहुत बड़ा था क्योंकि प्रकाशन-संबंधी सभी दायित्व उसी को वहन करना पड़ता था । हिंदी में अभी समाचारपत्रों के लिए स्वागत भूमि नहीं तैयार हुई थी । इसलिए इन्हें हर क़दम पर प्रतिकूलता से जूझना पड़ता था और प्रगति के प्रत्येक अगले चरण पर अवरोध का मुक़ाबला करना पड़ता था । तथापि इनकी निष्ठा बड़ी बलवती थी । साधनों की न्यूनता से इनकी निष्ठा सदैव अप्रभावित रही । आर्थिक कठिनाइयों के कारण हिंदी के आदि पत्रकार पं. जुगल किशोर शुक्ल ने 'उदंत मार्तंड' का प्रकाशन बंद कर दिया था किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि आर्थिक कठिनाइयों ने उनकी निष्ठा को ही खंडित कर दिया था । यदि उनकी निष्ठा टूट गई होती तो कदाचित् पुनः पत्र-प्रकाशन का साहस न करते । हम जानते हैं कि पं. जुगल किशोर शुक्ल ने 1850 में पुनः 'सामदंत मार्तंड' नाम का एक पत्र प्रकाशित किया था । इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रतिकूल परिस्थिति से लड़ने का उनमें अदम्य उत्साह था । उस युग के पत्रकारों की यह एक सामान्य विशेषता थी । युगीन-चेतना के प्रति ये पत्र सचेत थे और हिंदी-समाज तथा युगीन अभिज्ञता के बीच सेतु का काम कर रहे थे ।"

हिंदी पत्रकारिता के उद्भव और तत्पश्चात् के दिनों, परिस्थितियों का विवेचन करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि हिंदी पत्रकारिता के लिए आरंभिक दिन उत्साहवर्धक न रहने के बावजूद निष्ठावान पत्राकारों की श्रेष्ठ महत्वकांक्षा ने आगे की पीढ़ी में दृढ़-चेतना जगाई । परिणामतः हिंदी पत्रकारिता का विकास आरंभिक दिनों में भले ही मंद गति से हुआ और आगे के दिनों में तीव्रगति से विकास भी सुनिश्चित हुआ । आज हिंदी पत्रकारिता शिखर स्थिति में रहने के दावे पर आपत्ति होने पर भी यह निर्विवाद बात है कि अद्यतन वैज्ञानिक उपलब्धियों के सहारे उत्थान की सीढ़ियों पर वह ज़रूर अग्रसर है। कई हिंदी पत्र-पत्रिकाएँ आज उपग्रहीय समाचार व्यवस्था से जुड़ी हैं और कई हिंदी पत्रों के इंटर्नेट संस्करण भी आज उपलब्ध हैं । जहाँ हिंदी समाचारपत्रों के वेब पोर्टलों के माध्यम से अद्यतन समाचार पाठकों को सुलभ होते रहते हैं, वहीं दूरदर्शन के विभिन्न चैनलों के माध्यम से सनसनीखेज खबरें परोसी जाती हैं । आज हिंदी में भी कई ब्लॉग विकसित हुए हैं, जिनमें से कुछ ब्लॉग समाचार माध्यमों के रूप में भी अपनी भूमिका अदा करते हुए नागरिक पत्रकारिता के विकास की स्थिति को दर्शान के साथ-साथ निश्चय ही यह साबित कर रहे हैं कि समाचार प्रसारण की व्यवस्था की गति में अभूतपूर्व ढंग से विकास हुआ है । अमरीका के किसी भी कोने में घटने वाली घटना वेबसाइटों में दर्शन देना ही नहीं, भारत के भी कई छोटे शहरों या गाँवों में घटनेवाली घटनाओं की खबरें भी हमें टी.वी. चैनलों के माध्यम से मिनटों में मिलना इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है । हिंदी पत्रकारिता, हिंदी वेबसाइट या हिंदी चैनल भी ऐसी ही गति से आगे बढ़ रही हैं । निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि हिंदी पत्रकारिता अपने उद्भव काल से ही गतिशील चेतना की स्वामी बनकर प्रगति-पथ पर आगे बढ़ती रही है ।

पत्रकारिता



पत्रकारिता (journalism) आधुनिक सभ्यता का एक प्रमुख व्यवसाय है जिसमें समाचारों का एकत्रीकरण, लिखना, रिपोर्ट करना, सम्पादित करना और सम्यक प्रस्तुतीकरण आदि सम्मिलित हैं। आज के युग में पत्रकारिता के भी अनेक माध्यम हो गये हैं; जैसे - अखबार, पत्रिकायें, रेडियो, दूरदर्शन, वेब-पत्रकारिता आदि।




इतिहास
लगता है कि विश्व में पत्रकारिता का आरंभ सन 131 ईस्वी पूर्व रोम href="http://hi.wikipedia.org/wiki/रोम">रोम में हुआ था। उस साल पहला दैनिक समाचार-पत्र निकलने लगा। उस का नाम था – “Acta Diurna” (दिन की घटनाएं). वास्तव में यह पत्थर की या धातु की पट्टी होता था जिस पर समाचार अंकित होते थे ये पट्टियां रोम के मुख्य स्थानों पर रखी जाती थीं और इन में वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति, नागरिकों की सभाओं के निर्णयों और ग्लेडिएटरों की लड़ाइयों के परिणामों के बारे में सूचनाएं मिलती थीं।
मध्यकाल में यूरोप href="http://hi.wikipedia.org/wiki/यूरोप">यूरोप के व्यापारिक केंद्रों मेंसूचना-पत्रनिकलने लगे। उन में कारोबार, क्रय-विक्रय और मुद्रा के मूल्य में उतार-चढ़ाव के समाचार लिखे जाते थे। लेकिन ये सारेसूचना-पत्रहाथ से ही लिखे जाते थे।
15वीं शताब्दी के मध्य में योहन गूटनबर्ग ने छापने की मशीन का आविष्कार किया। असल में उन्होंने धातु के अक्षरों का आविष्कार किया। इस के फलस्वरूप किताबों का ही नहीं, अख़्बारों का भी प्रकाशन संभव हो गया।
16वीं शताब्दी के अंत में, यूरोप के शहर स्त्रास्बुर्ग में, योहन कारोलूस नाम का कारोबारी धनवान ग्राहकों के लिये सूचना-पत्र लिखवा कर प्रकाशित करता था। लेकिन हाथ से बहुत सी प्रतियों की नक़ल करने का काम महंगा भी था और धीमा भी। तब वह छापे की मशीन ख़रीद कर 1605 में समाचार-पत्र छापने लगा। समाचार-पत्र का नाम थारिलेशन यह विश्व का प्रथम मुद्रित समाचार-पत्र माना जाता है।




भारत में पत्रकारिता का आरंभ
छापे की पहली मशीन भारत में 1674 में पहुंचायी गयी थी। मगर भारत का पहला अख़बार इस के 100 साल बाद, 1776 में प्रकाशित हुआ। इस का प्रकाशक ईस्ट इंडिया कंपनी" href="http://hi.wikipedia.org/wiki/ईस्ट_इंडिया_कंपनी">ईस्ट इंडिया कंपनी का भूतपूर्व अधिकारी विलेम बॉल्ट्स था। यह अख़बार स्वभावतः अंग्रेज़ी भाषा में निकलता था तथा कंपनी सरकार के समाचार फैलाता था।
सब से पहला अख़बार, जिस में विचार स्वतंत्र रूप से व्यक्त किये गये, वह 1780 में जेम्स ओगस्टस हीकी का अख़बारबंगाल गज़ेट (अब तक बनाया नहीं)" href="http://hi.wikipedia.org/w/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%B2_%E0%A4%97%E0%A4%9C%E0%A4%BC%E0%A5%87%E0%A4%9F&action=edit&redlink=1">बंगाल गज़ेटथा। अख़बार में दो पन्ने थे, और इस में ईस्ट इंडिया कंपनी के वरिष्ठ अधिकारियों की व्यक्तिगत जीवन पर लेख छपते थे। जब हीकी ने अपने अख़बार में गवर्नर की पत्नी का आक्षेप किया तो उसे 4 महीने के लिये जेल भेजा गया और 500 रुपये का जुरमाना लगा दिया गया। लेकिन हीकी शासकों की आलोचना करने से पर्हेज़ नहीं किया। और जब उस ने गवर्नर और सर्वोच्च न्यायाधीश की आलोचना की तो उस पर 5000 रुपये का जुरमाना लगाया गया और एक साल के लिये जेल में डाला गया। इस तरह उस का अख़बार भी बंद हो गया।
सन् 1790 के बाद भारत में अंग्रेज़ी भाषा की और कुछ अख़बार स्थापित हुए जो अधिक्तर शासन के मुखपत्र थे। पर भारत में प्रकाशित होनेवाले समाचार-पत्र थोड़े-थोड़े दिनों तक ही जीवित रह सके।
1819 में भारतीय भाषा में पहला समाचार-पत्र प्रकाशित हुआ था। वह बंगाली भाषा का पत्र – ‘संवाद कौमुदी (अब तक बनाया नहीं)" href="http://hi.wikipedia.org/w/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6_%E0%A4%95%E0%A5%8C%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%80&action=edit&redlink=1">संवाद कौमुदी’ (बुद्धि का चांद) था। उस के प्रकाशक राजा राममोहन राय" href="http://hi.wikipedia.org/wiki/राजा_राममोहन_राय">राजा राममोहन राय थे।
1822 में गुजराती href="http://hi.wikipedia.org/wiki/गुजराती">गुजराती भाषा का साप्ताहिकमुंबईना समाचारप्रकाशित होने लगा, जो दस वर्ष बाद दैनिक हो गया और गुजराती के प्रमुख दैनिक के रूप में आज तक विद्यमान है। भारतीय भाषा का यह सब से पुराना समाचार-पत्र है।
1826 मेंउदंत मार्तण्ड" href="http://hi.wikipedia.org/wiki/उदंत_मार्तण्ड">उदंत मार्तण्डनाम से हिंदी href="http://hi.wikipedia.org/wiki/हिंदी">हिंदी के प्रथम समाचार-पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। यह साप्ताहिक पत्र 1827 तक चला और पैसे की कमी के कारण बंद हो गया।
1830 में राममोहन राय ने बड़ा हिंदी साप्ताहिकबंगदूत (अब तक बनाया नहीं)" href="http://hi.wikipedia.org/w/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%A6%E0%A5%82%E0%A4%A4&action=edit&redlink=1">बंगदूतका प्रकाशन शुरू किया। वैसे यह बहुभाषीय पत्र था, जो अंग्रेज़ी, बंगला, हिंदी और फारसी में निकलता था। यह कोलकाता से निकलता था जो अहिंदी क्षेत्र था। इस से पता चलता है कि राममोहन राय हिंदी को कितना महत्व देते थे।
1833 में भारत में 20 समाचार-पत्र थे, 1850 में 28 हो गए, और 1953 में 35 हो गये। इस तरह अख़बारों की संख्या तो बढ़ी, पर नाममात्र को ही बढ़ी। बहुत से पत्र जल्द ही बंद हो गये। उन की जगह नये निकले। प्रायः समाचार-पत्र कई महीनों से ले कर दो-तीन साल तक जीवित रहे।
उस समय भारतीय समाचार-पत्रों की समस्याएं समान थीं। वे नया ज्ञान अपने पाठकों को देना चाहते थे और उसके साथ समाज-सुधार की भावना भी थी। सामाजिक सुधारों को लेकर नये और पुराने विचारवालों में अंतर भी होते थे। इस के कारण नये-नये पत्र निकले। उन के सामने यह समस्या भी थी कि अपने पाठकों को किस भाषा में समाचार और विचार दें। समस्या थीभाषा शुद्ध हो या सब के लिये सुलभ हो? 1846 में राजा शिव प्रसाद ने हिंदी पत्रबनारस अख़बारका प्रकाशन शुरू किया। राजा शिव प्रसाद (अब तक बनाया नहीं)" href="http://hi.wikipedia.org/w/index.php?title=%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%BE_%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%B5_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A6&action=edit&redlink=1">राजा शिव प्रसाद शुद्ध हिंदी का प्रचार करते थे और अपने पत्र के पृष्ठों पर उन लोगों की कड़ी आलोचना की जो बोल-चाल की हिंदुस्तानी के पक्ष में थे। लेकिन उसी समय के हिंदी लेखक भारतेंदु हरिशचंद्र (अब तक बनाया नहीं)" href="http://hi.wikipedia.org/w/index.php?title=%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A5%87%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%81_%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A4%9A%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0&action=edit&redlink=1">भारतेंदु हरिशचंद्र ने ऐसी रचनाएं रचीं जिन की भाषा समृद्ध भी थी और सरल भी। इस तरह उन्होंने आधुनिक हिंदी की नींव रखी और हिंदी के भविष्य के बारे में हो रहे विवाद को समाप्त कर दिया। 1868 में भरतेंदु हरिशचंद्र ने साहित्यिक पत्रिकाकविवच सुधानिकालना प्रारंभ किया।
1854 में हिंदी का पहला दैनिकसमाचार सुधा वर्षणनिकला।