Sunday, July 19, 2009

हिंदी पत्रकारिता का आरंभिक काल अब भी स्पष्ट नहीं

हिंदी पत्रकारिता का आरंभिक काल अब भी स्पष्ट नहीं
लखनऊ। हिंदी पत्रकारिता के आरंभिक काल पर अब भी रहस्य का पर्दा पडा हुआ है और भविष्य में यदि इस बारे में सचित्र प्रमाण मिले तो फिर हिंदी पत्रकारिता दिवस भी बदल सकता है।
यह रहस्योद्घाटन लखनऊ विश्वविद्यालय के लोक प्रशासन विभाग में शोधरत यशोवर्धन तिवारी ने अपने एक शोध पत्र में किया है। उन्होंने सोमवार को यहां एक बातचीत के दौरान बताया कि हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में 30 मई का विशेष महत्व है। वर्ष 1826 में 30 मई को कोलकाता से हिंदी का प्रथम समाचार पत्र उदन्त मार्तण्ड प्रकाशित हुआ था।
उन्होंने बताया कि यह एक बहस का मुद्दा है कि क्या उदन्त मार्तण्ड वास्तव में हिंदी का प्रथम समाचार पत्र था। उन्होंने कहा कि यदि इस प्रश्न का उत्तर नकारात्मक सिद्ध हो जाता है तो हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में बदलाव आवश्यक हो जाएगा। इसके प्रारंभिक काल का पुन: लेखन करना होगा। उन्होंने बताया कि ऐसे साक्ष्य उपलब्ध हैं जो यह संकेत करते हैं कि उदन्त मार्तण्ड के प्रकाशन अर्थात 30 मई 1826 के पहले भी हिंदी में पत्रों का प्रकाशन प्रारम्भ हो गया था।
तिवारी ने बताया कि ले. कर्नल जेम्स टॉड ने अपनी पुस्तक एनल्स एण्ड एन्टीक्विटीज ऑफ राजस्थान और द सेंट्रल एण्ड राजपूत स्टेट्स ऑफ इंडिया में बूंदी रियासत के (अखबार) का उल्लेख किया है। इसमें अखबार के 18 अक्टूबर 1820 के अंक का भी उल्लेख किया गया है।
उन्होंने बताया कि इस ग्रन्थ में एक अन्य स्थान पर बूंदी रियासत के (कोर्ट जर्नल) का उल्लेख मिलता है। टॉड लिखते हैं कि बूंदी नरेश राव राजा बिशन सिंह ने अपने छोटे से साम्राज्य के निरंकुश शासक थे। वह इस मत के थे कि शासित वर्ग, विशेष रूप से नौकरशाही से सम्मान प्राप्त करने के लिए भय एक अनिवार्य प्रोत्साहक का काम करता है।
तिवारी ने बताया कि यदि बूंदी के (कोर्ट जर्नल) का विश्वास किया जाए तो बूंदी नरेश का अपने वित्त मंत्री (जो राज्य के प्रधानमंत्री भी थे) के प्रति बर्ताव निश्चित रुप से मौके पर उपस्थित लोगों के लिए दिलचस्प रहा होगा।
तिवारी ने बताया कि बूंदी के (कोर्ट जर्नल) के प्रकाशन काल तथा उसकी भाषा की कोई जानकारी कर्नल टॉड नहीं देते हैं, लेकिन उक्त अध्याय में वे राव राजा बिशन सिंह के साथ 10 फरवरी 1818 को की गई संधि के संबंध में लिखते हैं। यहां यह भी उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि ले. कर्नल टॉड पश्चिमी राजपूत रियासतों में ईस्ट इंडिया कंपनी के राजनीतिक एजेंट के रूप में तैनात थे। वे यह भी बताते हैं कि राव राजा बिशन सिंह के निधन के पश्चात उनके पुत्र राम सिंह अगस्त 1821 में बूंदी के राजसिंहासन पर आरूढ हुए थे। उन्होंने कहा कि इससे यह तो निश्चित है कि जिस (कोर्ट जर्नल) का टॉड ने वर्णन किया है उसका प्रकाशन फरवरी 1818 से अगस्त 1821 के दौरान हुआ होगा। उन्होंने बताया कि जिस प्रकार यह स्पष्ट नहीं है कि (कोर्ट जर्नल) की भाषा क्या थी, ठीक उसी प्रकार बूंदी के अखबार की भाषा के संबंध में जानकारी अनुपलब्ध है क्योंकि इस सन्दर्भ में भी टॉड का वर्णन मौन है। जहां तक कोर्ट जर्नल की भाषा का प्रश्न है तो उस संबंध में एक मत यह भी है कि चूंकि बूंदी हिंदी भाषी प्रदेश है इसलिए यह मान लेना गलत न होगा कि यह पत्र हिंदी में ही निकलता था।
उदन्त मार्तण्ड के प्रकाशन के पूर्व हिंदी पत्रकारिता की किरणों के प्रस्फुटित होने का एक अन्य संकेत भी उपलब्ध है। उन्होंने बताया कि वेद प्रताप वैदिक द्वारा संपादित (हिंदी पत्रकारिता के विविध आयाम) के द्वितीय खण्ड में बंगाल प्रांत में बैपटिस्ट मिशनरियों द्वारा निकाले गए मासिक पत्र दिग्दर्शन की जानकारी मिलती है।
तिवारी ने बताया कि हुगली जिले में श्रीरामपुर से अप्रैल 1818 में बैपटिस्ट मिशनरियों ने एक मासिक पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया जिसका नाम दिग्दर्शन था। अप्रैल 1818 से अप्रैल 1820 के दौरान दिग्दर्शन के कुल 16 अंक अंग्रेजी और बंगला में प्रकाशित हुए। उन्होंने बताया कि प्रकाशकों ने हिंदी में भी इस मासिक पत्र को निकालने का निर्णय लिया और दिल्ली से आदमी लाकर इसके तीन अंक निकाले गए। उन्होंने बताया कि हिंदी दिग्दर्शन के तीन अंक कब प्रकाशित हुए इसकी जानकारी उपलब्ध नहीं है। चूंकि अंग्रेजी तथा बंगला भाषी दिग्दर्शन के कुल 16 अंक अप्रैल 1818 से 1820 के दौरान प्रकाशित हुए और इसी अवधि में ही हिंदी के अंक निकालने की बात सोची गई तथा तीन अंक निकाले भी गए। इससे यह प्रतीत होता है कि हिंदी मासिक दिग्दर्शन का प्रकाशन काल भी अप्रैल 1818 से अप्रैल 1820
के मध्य का रहा होगा। उन्होंने बताया कि बूंदी के कोर्ट जर्नल वहां से निकले अखबार तथा श्रीरामपुर, हुगली, से प्रकाशित दिग्दर्शन के अंकों की अनुपलब्धता के परिणामस्वरुप आज भी हिंदी पत्रकारिता के आरंभिक काल पर एक आवरण है। हो सकता है कि भविष्य में यदि इनमें से किसी एक का भी सचित्र प्रमाण मिले तो फिर इतिहास को बदलना होगा और शायद हिंदी पत्रकारिता दिवस को भी।

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