Sunday, October 4, 2009

किसान भी हैं जिम्मेदार -रामवीर श्रेष्ठ

भारत में किसानों की बदहाली की जब भी चर्चा होती है तो प्राय: सबकी उंगली सरकारी नीतियों के खिलाफ ही उठती है, जो ठीक भी है। किंतु प्रश्न उठता है कि क्या किसान अपनी खराब हालत के लिए खुद जिम्मेदार नहीं हैं? नए दौर में किसानों की आदतें बदली हैं और उनकी प्राथमिकताएं भी। किसान अब अपनी मेहनत और प्रकृति प्रदत्ता संसाधनों की बजाय सरकारी अनुदान और उद्योगों द्वारा मुहैया कराए गए साजो सामान पर निर्भर हो गया है।
अपनी अच्छी-भली पारंपरिक कृषि को छोड़ वह व्यावसायिक कृषि की चमक-दमक के पीछे भागने लगा। लेकिन, हुआ यह कि उसे न माया मिली न राम।
आइए गौर करते हैं उन बातों पर जो किसान की लापरवाही के कारण उसके लिए मुश्किल बनी हुई हैं। हम अच्छी तरह जानते हैं कि देश की जमीन का बहुत बड़ा हिस्सा बारानी व्यवस्था यानि बारिश के पानी पर आधारित है। बारिश नहीं हुई तो पूरी खेती चौपट हो जाती है। किसान मजबूर खड़ा रह जाता है। नहरों से सिंचाई की समस्या को दूर करने की कोशिश की गई। लेकिन, इससे समस्या का अंतिम हल ढूंढ पाना असंभव है। टयूबवेलों की भी अपनी सीमाएं हैं। उनका खर्च वहन कर पाना देश के अधिकतर किसानों के लिए कठिन है। सिंचाई की इन समस्याओं को समझते हुए भी किसान सदियों से काम आ रहे भूजल की हिफाजत करना भूल गए।
वे जमीनी जलस्तर को काबू में रखने की जिम्मेवारी से बचते रहे। किसानों ने इस बात का भी ध्यान नहीं रखा कि उनके इलाके में पानी की उपलब्धता को देखते हुए किन फसलों की खेती करनी चाहिए और किनकी नहीं। भविष्य की कठिनाइयों पर विचार किए बिना उन्होंने पानी की भारी खपत वाली फसलों की खेती करनी शुरू कर दी। ऐसा नहीं है कि किसानों को इसके खतरे नहीं मालूम थे। उन्हें यह अच्छी तरह मालूम था कि आज नहीं तो कल पानी की समस्या से दो-चार तो होना ही पड़ेगा।
किसानों की दूसरी सबसे बड़ी समस्या खाद को लेकर है। हरित क्रांति के बाद तो किसान जैसे देशी खाद का उपयोग करना ही भूल गए। जो लोग थोड़ा बहुत उपयोग करते हैं, वे बिना किसी प्रोसेसिंग के ज्यों का त्यों कच्चे गोबर का ही उपयोग करते हैं। इससे खेत में एक दूसरी बीमारी आती है और वो है ‘दीमक’। खेती को बाजार का हिस्सा बनाने वाली दवाई कंपनियों ने किसान के दिमाग में यह बात अच्छी तरह बिठा दी है कि रासायनिक डाई, यूरिया या रासायनिक कीटनाशकों के बगैर आधुनिक खेती संभव ही नहीं है। ये ऐसा मोहपाश है जिससे भारतीय किसान उबर नहीं पाया है।
दरअसल, कुछ पहाड़ी या वन क्षेत्रों को छोड़ दें तो खाद के मामले में किसान पूरी तरह से बाजार पर निर्भर हो गए हैं। आगे जैसे-जैसे खेती की उर्वरा शक्ति घटी है, वैसे-वैसे उसमें रासायनिक खाद की मात्रा बढ़नी शुरू हुई है। कम खाद डालने पर अब खेती उचित परिणाम नहीं दे पा रही है।
देश में कृषि के आधुनिकीकरण के नाम पर जो नई तकनीके थोपी गईं उन्होंने किसान को श्रम से दूर कर दिया। ट्रैक्टर ने बैल को अनुपयोगी बना दिया है। किसानों को गोबर में हाथ गंदा करने से अच्छा लगा कि खेतों में यूरिया डाली जाए। दरअसल, शुरुआत में इसकी वजह कम मात्रा में ज्यादा कारगर सिद्ध होना था। शुरू में तो नहीं लेकिन आज किसान रासायनिक खाद के दुष्परिणाम को समझने लगे हैं। लेकिन, फिर भी वे अपनी आदतें बदलने में तेजी नहीं दिखा रहे हैं। जिन किसानों ने इस दिशा में तेजी दिखाई, उनकी हालत औरों से बेहतर है।
आज खेती श्रम से दूर हो गई है। यह आरामतलबी किसानों के लिए अच्छी नहीं है। उन्हें अब समझ लेना चाहिए कि आराम की यह चाहत उनके लिए बहुत महंगी पड़ेगी। ट्रैक्टर जैसे कृषि यंत्र बड़े-बड़े फार्मों के लिए तो ठीक हैं मगर छोटे किसानों को तो अंतत: बैलों का ही सहारा लेना पड़ेगा। कई किसानों को यह बात समझ में आ गई है और वे इसे अपनाने लगे हैं। जिलौठी के तिलक सिंह अपनी 1 हेक्टेयर जमीन की जुताई में बैलों का उपयोग करते हैं और इस प्रकार साल भर में 8 से 10 हजार रूपए बचा रहे हैं। यही बात खाद के मामले में भी लागू होती है। भूनी गांव के किसान अनिल त्यागी का अनुभव है कि केवल केंचुआ खाद देने पर खेतों में पानी की मांग कम हो गई।
आज समय आ गया है जब किसान अपनी जिम्मेदारी समझें। उन्हें अपनी मेहनत और अपने प्राकृतिक संसाधनों पर यकीन करते हुए एक बार फिर खेतों में जाना पड़ेगा। अगर उन्होंने ऐसा नहीं किया तो अपनी बदहाली के लिए वे स्वयं जिम्मेदार होंगे, सरकार या कोई और नहीं।

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