Tuesday, July 21, 2009
Monday, July 20, 2009
India key player for global food security
"President Obama and I had a signature issue - food security and ending hunger. India is well placed to help us (achieve it)," Clinton said at the National Agricultural Science Centre that is part of the Indian Agricultural Research Institute (IARI) here.
"The problem of chronic hunger and malnutrition is a huge issue. (Currently) one billion people are hungry in the world. It can undermine peace and instability can follow. We believe that world has the resources to feed all people.
"I am delighted to be in this prestigious institute and partner India in agriculture. India's experience in agriculture is unsurpassable. With only three percent of the land area, it feeds 17 percent of (global) people. India's leadership is crucial," she added
She said the US administration is happy to partner India in agriculture.
"Agriculture is a pillar of our five pillar discussion (with India). We want to expand our partnership to produce better seeds, grains, farm technology. There is no limit to new explorations in agriculture with India. I am committed to this effort," Ms. Clinton said while alluding to the US role in spurring a green revolution in India in the 1960s that was marked by the introduction of high-yield seed varieties leading to enhanced farm productivity.
She said bio-energy, bio-security, bio-diversity are key areas. The effort is to "end hunger". She also said that India can play a great role in food processing industry.
Ms. Clinton was received at the institute by Agriculture Minister Sharad Pawar. Enhanced cooperation in agriculture will be one of the areas of discussions between Clinton and External Affairs Minister S.M. Krishna Monday.
हिन्दी पत्रकारिता की कहानी
हिन्दी पत्रकारिता में अंग्रेजी पत्रकारिता के दबदबे को खत्म कर दिया है। पहले देश-विदेश में अंग्रेजी पत्रकारिता का दबदबा था लेकिन आज हिन्दी भाषा का परचम चंहुदिश फैल रहा है।
भारतीय भाषाओं में पत्रकारिता का आरम्भ और हिन्दी पत्रकारिता
भारतवर्ष में आधुनिक ढंग की पत्रकारिता का जन्म अठारहवीं शताब्दी के चतुर्थ चरण में कलकत्ता, बंबई और मद्रास में हुआ। 1780 ई. में प्रकाशित हिके (Hickey) का "कलकत्ता गज़ट" कदाचित् इस ओर पहला प्रयत्न था। हिंदी के पहले पत्र उदंत मार्तण्ड (1826) के प्रकाशित होने तक इन नगरों की ऐंग्लोइंडियन अंग्रेजी पत्रकारिता काफी विकसित हो गई थी।
इन अंतिम वर्षों में फारसी भाषा में भी पत्रकारिता का जन्म हो चुका था। 18वीं शताब्दी के फारसी पत्र कदाचित् हस्तलिखित पत्र थे। 1801 में हिंदुस्थान इंटेलिजेंस ओरिऐंटल ऐंथॉलॉजी (Hindusthan Intelligence Oriental Anthology) नाम का जो संकलन प्रकाशित हुआ उसमें उत्तर भारत के कितने ही "अखबारों" के उद्धरण थे। 1810 में मौलवी इकराम अली ने कलकत्ता से लीथो पत्र "हिंदोस्तानी" प्रकाशित करना आरंभ किया। 1816 में गंगाकिशोर भट्टाचार्य ने "बंगाल गजट" का प्रवर्तन किया। यह पहला बंगला पत्र था। बाद में श्रीरामपुर के पादरियों ने प्रसिद्ध प्रचारपत्र "समाचार दर्पण" को (27 मई, 1818) जन्म दिया। इन प्रारंभिक पत्रों के बाद 1823 में हमें बँगला भाषा के समाचारचंद्रिका और "संवाद कौमुदी", फारसी उर्दू के "जामे जहाँनुमा" और "शमसुल अखबार" तथा गुजराती के "मुंबई समाचार" के दर्शन होते हैं।
यह स्पष्ट है कि हिंदी पत्रकारिता बहुत बाद की चीज नहीं है। दिल्ली का "उर्दू अखबार" (1833) और मराठी का "दिग्दर्शन" (1837) हिंदी के पहले पत्र "उदंत मार्तंड" (1826) के बाद ही आए। "उदंत मार्तंड" के संपादक पंडित जुगलकिशोर थे। यह साप्ताहिक पत्र था। पत्र की भाषा पछाँही हिंदी रहती थी, जिसे पत्र के संपादकों ने "मध्यदेशीय भाषा" कहा है। यह पत्र 1827 में बंद हो गया। उन दिनों सरकारी सहायता के बिना किसी भी पत्र का चलना असंभव था। कंपनी सरकार ने मिशनरियों के पत्र को डाक आदि की सुविधा दे रखी थी, परंतु चेष्टा करने पर भी "उदंत मार्तंड" को यह सुविधा प्राप्त नहीं हो सकी।
हिंदी पत्रकारिता का पहला चरण
1826 ई. से 1873 ई. तक को हम हिंदी पत्रकारिता का पहला चरण कह सकते हैं। 1873 ई. में भारतेंदु ने "हरिश्चंद्र मैगजीन" की स्थापना की। एक वर्ष बाद यह पत्र "हरिश्चंद्र चंद्रिका" नाम से प्रसिद्ध हुआ। वैसे भारतेंदु का "कविवचन सुधा" पत्र 1867 में ही सामने आ गया था और उसने पत्रकारिता के विकास में महत्वपूर्ण भाग लिया था; परंतु नई भाषाशैली का प्रवर्तन 1873 में "हरिश्चंद्र मैगजीन" से ही हुआ। इस बीच के अधिकांश पत्र प्रयोग मात्र कहे जा सकते हैं और उनके पीछे पत्रकला का ज्ञान अथवा नए विचारों के प्रचार की भावना नहीं है। "उदंत मार्तंड" के बाद प्रमुख पत्र हैं : बंगदूत (1829), प्रजामित्र (1834), बनारस अखबार (1845), मार्तंड पंचभाषीय (1846), ज्ञानदीप (1846), मालवा अखबार (1849), जगद्दीप भास्कर (1849), सुधाकर (1850), साम्यदंड मार्तंड (1850), मजहरुलसरूर (1850), बुद्धिप्रकाश (1852), ग्वालियर गजेट (1853), समाचार सुधावर्षण (1854), दैनिक कलकत्ता, प्रजाहितैषी (1855), सर्वहितकारक (1855), सूरजप्रकाश (1861), जगलाभचिंतक (1861), सर्वोपकारक (1861), प्रजाहित (1861), लोकमित्र (1835), भारतखंडामृत (1864), तत्वबोधिनी पत्रिका (1865), ज्ञानप्रदायिनी पत्रिका (1866), सोमप्रकाश (1866), सत्यदीपक (1866), वृत्तांतविलास (1867), ज्ञानदीपक (1867), कविवचनसुधा (1867), धर्मप्रकाश (1867), विद्याविलास (1867), वृत्तांतदर्पण (1867), विद्यादर्श (1869), ब्रह्मज्ञानप्रकाश (1869), अलमोड़ा अखबार (1870), आगरा अखबार (1870), बुद्धिविलास (1870), हिंदू प्रकाश (1871), प्रयागदूत (1871), बुंदेलखंड अखबर (1871), प्रेमपत्र (1872), और बोधा समाचार (1872)। इन पत्रों में से कुछ मासिक थे, कुछ साप्ताहिक। दैनिक पत्र केवल एक था "समाचार सुधावर्षण" जो द्विभाषीय (बंगला हिंदी) था और कलकत्ता से प्रकाशित होता था। यह दैनिक पत्र 1871 तक चलता रहा। अधिकांश पत्र आगरा से प्रकाशित होते थे जो उन दिनों एक बड़ा शिक्षाकेंद्र था, और विद्यार्थीसमाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। शेष ब्रह्मसमाज, सनातन धर्म और मिशनरियों के प्रचार कार्य से संबंधित थे। बहुत से पत्र द्विभाषीय (हिंदी उर्दू) थे और कुछ तो पंचभाषीय तक थे। इससे भी पत्रकारिता की अपरिपक्व दशा ही सूचित होती है। हिंदीप्रदेश के प्रारंभिक पत्रों में "बनारस अखबार" (1845) काफी प्रभावशाली था और उसी की भाषानीति के विरोध में 1850 में तारामोहन मैत्र ने काशी से साप्ताहिक "सुधाकर" और 1855 में राजा लक्ष्मणसिंह ने आगरा से "प्रजाहितैषी" का प्रकाशन आरंभ किया था। राजा शिवप्रसाद का "बनारस अखबार" उर्दू भाषाशैली को अपनाता था तो ये दोनों पत्र पंडिताऊ तत्समप्रधान शैली की ओर झुकते थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि 1867 से पहले भाषाशैली के संबंध में हिंदी पत्रकार किसी निश्चित शैली का अनुसरण नहीं कर सके थे। इस वर्ष कवि वचनसुधा का प्रकाशन हुआ और एक तरह से हम उसे पहला महत्वपूर्ण पत्र कह सकते हैं। पहले यह मासिक था, फिर पाक्षिक हुआ और अंत में साप्ताहिक। भारतेंदु के बहुविध व्यक्तित्व का प्रकाशन इस पत्र के माध्यम से हुआ, परंतु सच तो यह है कि "हरिश्चंद्र मैगजीन" के प्रकाशन (1873) तक वे भी भाषाशैली और विचारों के क्षेत्र में मार्ग ही खोजते दिखाई देते हैं।
हिंदी पत्रकारिता का दूसरा युग : भारतेंदु युग
हिंदी पत्रकारिता का दूसरा युग 1873 से 1900 तक चलता है। इस युग के एक छोर पर भारतेंदु का "हरिश्चंद्र मैगजीन" था ओर नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा अनुमोदनप्राप्त "सरस्वती"। इन 27 वर्षों में प्रकाशित पत्रों की संख्या 300-350 से ऊपर है और ये नागपुर तक फैले हुए हैं। अधिकांश पत्र मासिक या साप्ताहिक थे। मासिक पत्रों में निबंध, नवल कथा (उपन्यास), वार्ता आदि के रूप में कुछ अधिक स्थायी संपत्ति रहती थी, परंतु अधिकांश पत्र 10-15 पृष्ठों से अधिक नहीं जाते थे और उन्हें हम आज के शब्दों में "विचारपत्र" ही कह सकते हैं। साप्ताहिक पत्रों में समाचारों और उनपर टिप्पणियों का भी महत्वपूर्ण स्थान था। वास्तव में दैनिक समाचार के प्रति उस समय विशेष आग्रह नहीं था और कदाचित् इसीलिए उन दिनों साप्ताहिक और मासिक पत्र कहीं अधिक महत्वपूर्ण थे। उन्होंने जनजागरण में अत्यंत महत्वपूर्ण भाग लिया था।
उन्नीसवीं शताब्दी के इन 25 वर्षों का आदर्श भारतेंदु की पत्रकारिता थी। "कविवचनसुधा" (1867), "हरिश्चंद्र मैगजीन" (1874), श्री हरिश्चंद्र चंद्रिका" (1874), बालबोधिनी (स्त्रीजन की पत्रिक, 1874) के रूप में भारतेंदु ने इस दिशा में पथप्रदर्शन किया था। उनकी टीकाटिप्पणियों से अधिकरी तक घबराते थे और "कविवचनसुधा" के "पंच" पर रुष्ट होकर काशी के मजिस्ट्रेट ने भारतेंदु के पत्रों को शिक्षा विभाग के लिए लेना भी बंद करा दिया था। इसमें संदेह नहीं कि पत्रकारिता के क्षेत्र भी भारतेंदु पूर्णतया निर्भीक थे और उन्होंने नए नए पत्रों के लिए प्रोत्साहन दिया। "हिंदी प्रदीप", "भारतजीवन" आदि अनेक पत्रों का नामकरण भी उन्होंने ही किया था। उनके युग के सभी पत्रकार उन्हें अग्रणी मानते थे।
भारतेंदु के बाद
भारतेंदु के बाद इस क्षेत्र में जो पत्रकार आए उनमें प्रमुख थे पंडित रुद्रदत्त शर्म, (भारतमित्र, 1877), बालकृष्ण भट्ट (हिंदी प्रदीप, 1877), दुर्गाप्रसाद मिश्र (उचित वक्ता, 1878), पंडित सदानंद मिश्र (सारसुधानिधि, 1878), पंडित वंशीधर (सज्जन-कीर्त्ति-सुधाकर, 1878), बदरीनारायण चौधरी "प्रेमधन" (आनंदकादंबिनी, 1881), देवकीनंदन त्रिपाठी (प्रयाग समाचार, 1882), राधाचरण गोस्वामी (भारतेंदु, 1882), पंडित गौरीदत्त (देवनागरी प्रचारक, 1882), राज रामपाल सिंह (हिंदुस्तान, 1883), प्रतापनारायण मिश्र (ब्राह्मण, 1883), अंबिकादत्त व्यास, (पीयूषप्रवाह, 1884), बाबू रामकृष्ण वर्मा (भारतजीवन, 1884), पं. रामगुलाम अवस्थी (शुभचिंतक, 1888), योगेशचंद्र वसु (हिंदी बंगवासी, 1890), पं. कुंदनलाल (कवि व चित्रकार, 1891), और बाबू देवकीनंदन खत्री एवं बाबू जगन्नाथदास (साहित्य सुधानिधि, 1894)। 1895 ई. में "नागरीप्रचारिणी पत्रिका" का प्रकाशन आरंभ होता है। इस पत्रिका से गंभीर साहित्यसमीक्षा का आरंभ हुआ और इसलिए हम इसे एक निश्चित प्रकाशस्तंभ मान सकते हैं। 1900 ई. में "सरस्वती" और "सुदर्शन" के अवतरण के साथ हिंदी पत्रकारिता के इस दूसरे युग पर पटाक्षेप हो जाता है।
इन 25 वर्षों में हमारी पत्रकारिता अनेक दिशाओं में विकसित हुई। प्रारंभिक पत्र शिक्षाप्रसार और धर्मप्रचार तक सीमित थे। भारतेंदु ने सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक दिशाएँ भी विकसित कीं। उन्होंने ही "बालाबोधिनी" (1874) नाम से पहला स्त्री-मासिक-पत्र चलाया। कुछ वर्ष बाद महिलाओं को स्वयं इस क्षेत्र में उतरते देखते हैं - "भारतभगिनी" (हरदेवी, 1888), "सुगृहिणी" (हेमंतकुमारी, 1889)। इन वर्षों में धर्म के क्षेत्र में आर्यसमाज और सनातन धर्म के प्रचारक विशेष सक्रिय थे। ब्रह्मसमाज और राधास्वामी मत से संबंधित कुछ पत्र और मिर्जापुर जैसे ईसाई केंद्रों से कुछ ईसाई धर्म संबंधी पत्र भी सामने आते हैं, परंतु युग की धार्मिक प्रतिक्रियाओं को हम आर्यसमाजी और सनातनी पत्रों में ही पाते हैं। आज ये पत्र कदाचित् उतने महत्वपूर्ण नहीं जान पड़ते, परंतु इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने हमारी गद्यशैली को पुष्ट किया और जनता में नए विचारों की ज्योति भी। इन धार्मिक वादविवादों के फलस्वरूप समाज के विभिन्न वर्ग और संप्रदाय सुधार की ओर अग्रसर हुए और बहुत शीघ्र ही सांप्रदायिक पत्रों की बाढ़ आ गई। सैकड़ों की संख्या में विभिन्न जातीय और वर्गीय पत्र प्रकाशित हुए और उन्होंने असंख्य जनों को वाणी दी।
आज वही पत्र हमारी इतिहासचेतना में विशेष महत्वपूर्ण हैं जिन्होंने भाषा शैली, साहित्य अथवा राजनीति के क्षेत्र में कोई अप्रतिम कार्य किया हो। साहित्यिक दृष्टि से "हिंदी प्रदीप" (1877), ब्राह्मण (1883), क्षत्रियपत्रिका (1880), आनंदकादंबिनी (1881), भारतेंदु (1882), देवनागरी प्रचारक (1882), वैष्णव पत्रिका (पश्चात् पीयूषप्रवाह, 1883), कवि के चित्रकार (1891), नागरी नीरद (1883), साहित्य सुधानिधि (1894), और राजनीतिक दृष्टि से भारतमित्र (1877), उचित वक्ता (1878), सार सुधानिधि (1878), भारतोदय (दैनिक, 1883), भारत जीवन (1884), भारतोदय (दैनिक, 1885), शुभचिंतक (1887) और हिंदी बंगवासी (1890) विशेष महत्वपूर्ण हैं। इन पत्रों में हमारे 19वीं शताब्दी के साहित्यरसिकों, हिंदी के कर्मठ उपासकों, शैलीकारों और चिंतकों की सर्वश्रेष्ठ निधि सुरक्षित है। यह क्षोभ का विषय है कि हम इस महत्वपूर्ण सामग्री का पत्रों की फाइलों से उद्धार नहीं कर सके। बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, सदानं मिश्र, रुद्रदत्त शर्मा, अंबिकादत्त व्यास और बालमुकुंद गुप्त जैसे सजीव लेखकों की कलम से निकले हुए न जाने कितने निबंध, टिप्पणी, लेख, पंच, हास परिहास औप स्केच आज में हमें अलभ्य हो रहे हैं। आज भी हमारे पत्रकार उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं। अपने समय में तो वे अग्रणी थे ही।
तीसरा चरण : बीसवीं शताब्दी के प्रथम बीस वर्ष
बीसवीं शताब्दी की पत्रकारिता हमारे लिए अपेक्षाकृत निकट है और उसमें बहुत कुछ पिछले युग की पत्रकारिता की ही विविधता और बहुरूपता मिलती है। 19वीं शती के पत्रकारों को भाषा-शैलीक्षेत्र में अव्यवस्था का सामना करना पड़ा था। उन्हें एक ओर अंग्रेजी और दूसरी ओर उर्दू के पत्रों के सामने अपनी वस्तु रखनी थी। अभी हिंदी में रुचि रखनेवाली जनता बहुत छोटी थी। धीरे-धीरे परिस्थिति बदली और हम हिंदी पत्रों को साहित्य और राजनीति के क्षेत्र में नेतृत्व करते पाते हैं। इस शताब्दी से धर्म और समाजसुधार के आंदोलन कुछ पीछे पड़ गए और जातीय चेतना ने धीरे-धीरे राष्ट्रीय चेतना का रूप ग्रहण कर लिया। फलत: अधिकांश पत्र, साहित्य और राजनीति को ही लेकर चले। साहित्यिक पत्रों के क्षेत्र में पहले दो दशकों में आचार्य द्विवेदी द्वारा संपादित "सरस्वती" (1903-1918) का नेतृत्व रहा। वस्तुत: इन बीस वर्षों में हिंदी के मासिक पत्र एक महान् साहित्यिक शक्ति के रूप में सामने आए। शृंखलित उपन्यास कहानी के रूप में कई पत्र प्रकाशित हुए - जैसे उपन्यास 1901, हिंदी नाविल 1901, उपन्यास लहरी 1902, उपन्याससागर 1903, उपन्यास कुसुमांजलि 1904, उपन्यासबहार 1907, उपन्यास प्रचार 19012। केवल कविता अथवा समस्यापूर्ति लेकर अनेक पत्र उन्नीसवीं शतब्दी के अंतिम वर्षों में निकलने लगे थे। वे चले रहे। समालोचना के क्षेत्र में "समालोचक" (1902) और ऐतिहासिक शोध से संबंधित "इतिहास" (1905) का प्रकाशन भी महत्वपूर्ण घटनाएँ हैं। परंतु सरस्वती ने "मिस्लेनी" () के रूप में जो आदर्श रखा था, वह अधिक लोकप्रिय रहा और इस श्रेणी के पत्रों में उसके साथ कुछ थोड़े ही पत्रों का नाम लिया जा सकता है, जैसे "भारतेंदु" (1905), नागरी हितैषिणी पत्रिका, बाँकीपुर (1905), नागरीप्रचारक (1906), मिथिलामिहिर (1910) और इंदु (1909)। "सरस्वती" और "इंदु" दोनों हमारी साहित्यचेतना के इतिहास के लिए महत्वपूर्ण हैं और एक तरह से हम उन्हें उस युग की साहित्यिक पत्रकारिता का शीर्षमणि कह सकते हैं। "सरस्वती" के माध्यम से आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी और "इंदु" के माध्यम से पंडित रूपनारायण पांडेय ने जिस संपादकीय सतर्कता, अध्यवसाय और ईमानदारी का आदर्श हमारे सामने रखा वह हमारी पत्रकारित को एक नई दिशा देने में समर्थ हुआ।
परंतु राजनीतिक क्षेत्र में हमारी पत्रकारिता को नेतृत्व प्राप्त नहीं हो सका। पिछले युग की राजनीतिक पत्रकारिता का केंद्र कलकत्ता था। परंतु कलकत्ता हिंदी प्रदेश से दूर पड़ता था और स्वयं हिंदी प्रदेश को राजनीतिक दिशा में जागरूक नेतृत्व कुछ देर में मिला। हिंदी प्रदेश का पहला दैनिक राजा रामपालसिंह का द्विभाषीय "हिंदुस्तान" (1883) है जो अंग्रेजी और हिंदी में कालाकाँकर से प्रकाशित होता था। दो वर्ष बाद (1885 में), बाबू सीताराम ने "भारतोदय" नाम से एक दैनिक पत्र कानपुर से निकालना शुरू किया। परंतु ये दोनों पत्र दीर्घजीवी नहीं हो सके और साप्ताहिक पत्रों को ही राजनीतिक विचारधारा का वाहन बनना पड़ा। वास्तव में उन्नीसवीं शतब्दी में कलकत्ता के भारत मित्र, वंगवासी, सारसुधानिधि और उचित वक्ता ही हिंदी प्रदेश की रानीतिक भावना का प्रतिनिधित्व करते थे। इनमें कदाचित् "भारतमित्र" ही सबसे अधिक स्थायी और शक्तिशाली था। उन्नीसवीं शताब्दी में बंगाल और महाराष्ट्र लोक जाग्रति के केंद्र थे और उग्र राष्ट्रीय पत्रकारिता में भी ये ही प्रांत अग्रणी थे। हिंदी प्रदेश के पत्रकारों ने इन प्रांतों के नेतृत्व को स्वीकार कर लिया और बहुत दिनों तक उनका स्वतंत्र राजनीतिक व्यक्तित्व विकसित नहीं हो सका। फिर भी हम "अभ्युदय" (1905), "प्रताप" (1913), "कर्मयोगी", "हिंदी केसरी" (1904-1908) आदि के रूप में हिंदी राजनीतिक पत्रकारिता को कई डग आगे बढ़ाते पाते हैं। प्रथम महायुद्ध की उत्तेजना ने एक बार फिर कई दैनिक पत्रों को जन्म दिया। कलकत्ता से "कलकत्ता समाचार", "स्वतंत्र" और "विश्वमित्र" प्रकाशित हुए, बंबई से "वेंकटेश्वर समाचार" ने अपना दैनिक संस्करण प्रकाशित करना आरंभ किया और दिल्ली से "विजय" निकला। 1921 में काशी से "आज" और कानपुर से "वर्तमान" प्रकाशित हुए। इस प्रकार हम देखते हैं कि 1921 में हिंदी पत्रकारिता फिर एक बार करवटें लेती है और राजनीतिक क्षेत्र में अपना नया जीवन आरंभ करती है। हमारे साहित्यिक पत्रों के क्षेत्र में भी नई प्रवृत्तियों का आरंभ इसी समय से होता है। फलत: बीसवीं शती के पहले बीस वर्षों को हम हिंदी पत्रकारिता का तीसरा चरण कह सकते हैं।
आधुनिक युग
1921 के बाद हिंदी पत्रकारिता का समसामयिक युग आरंभ होता है। इस युग में हम राष्ट्रीय और साहित्यिक चेतना को साथ साथ पल्लवित पाते हैं। इसी समय के लगभग हिंदी का प्रवेश विश्वविद्यालयों में हुआ और कुछ ऐसे कृती संपादक सामने आए जो अंग्रेजी की पत्रकारिता से पूर्णत: परिचित थे और जो हिंदी पत्रों को अंग्रेजी, मराठी और बँगला के पत्रों के समकक्ष लाना चाहते थे। फलत: साहित्यिक पत्रकारिता में एक नए युग का आरंभ हुआ। राष्ट्रीय आंदोलनों ने हिंदी की राष्ट्रभाषा के लिए योग्यता पहली बार घोषित की ओर जैसे-जैसे राष्ट्रीय आंदोलनों का बल बढ़ने लगा, हिंदी के पत्रकार और पत्र अधिक महत्व पाने लगे। 1921 के बाद गांधी जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन मध्यवर्ग तक सीमित न रहकर ग्रामीणों और श्रमिकों तक पहुंच गया और उसके इस प्रसार में हिंदी पत्रकारिता ने महत्वपूर्ण योग दिया। सच तो यह है कि हिंदी पत्रकार राष्ट्रीय आंदोलनों की अग्र पंक्ति में थे और उन्होंने विदेशी सत्ता से डटकर मोर्चा लिया। विदेशी सरकार ने अनेक बार नए नए कानून बनाकर समाचारपत्रों की स्वतंत्रता पर कुठाराघात किया परंतु जेल, जुर्माना और अनेकानेक मानसिक और आर्थिक कठिनाइयाँ झेलते हुए भी हमारे पत्रकारों ने स्वतंत्र विचार की दीपशिखा जलाए रखी।
1921 के बाद साहित्यक्षेत्र में जो पत्र आए उनमें प्रमुख हैं स्वार्थ (1922), माधुरी (1923), मर्यादा, चाँद (1923), मनोरमा (1924), समालोचक (1924), चित्रपट (1925), कल्याण (1926), सुधा (1927), विशालभारत (1928), त्यागभूमि (1928), हंस (1930), गंगा (1930), विश्वमित्र (1933), रूपाभ (1938), साहित्य संदेश (1938), कमला (1939), मधुकर (1940), जीवनसाहित्य (1940), विश्वभारती (1942), संगम (1942), कुमार (1944), नया साहित्य (1945), पारिजात (1945), हिमालय (1946) आदि। वास्तव में आज हमारे मासिक साहित्य की प्रौढ़ता और विविधता में किसी प्रकार का संदेह नहीं हो सकता। हिंदी की अनेकानेक प्रथम श्रेणी की रचनाएँ मासिकों द्वारा ही पहले प्रकाश में आई और अनेक श्रेष्ठ कवि और साहित्यकार पत्रकारिता से भी संबंधित रहे। आज हमारे मासिक पत्र जीवन और साहित्य के सभी अंगों की पूर्ति करते हैं और अब विशेषज्ञता की ओर भी ध्यान जाने लगा है। साहित्य की प्रवृत्तियों की जैसी विकासमान झलक पत्रों में मिलती है, वैसी पुस्तकों में नहीं मिलती। वहाँ हमें साहित्य का सक्रिय, सप्राण, गतिशील रूप प्राप्त होता है।
राजनीतिक क्षेत्र में इस युग में जिन पत्रपत्रिकाओं की धूम रही वे हैं - कर्मवीर (1924), सैनिक (1924), स्वदेश (1921), श्रीकृष्णसंदेश (1925), हिंदूपंच (1926), स्वतंत्र भारत (1928), जागरण (1929), हिंदी मिलाप (1929), सचित्र दरबार (1930), स्वराज्य (1931), नवयुग (1932), हरिजन सेवक (1932), विश्वबंधु (1933), नवशक्ति (1934), योगी (1934), हिंदू (1936), देशदूत (1938), राष्ट्रीयता (1938), संघर्ष (1938), चिनगारी (1938), नवज्योति (1938), संगम (1940), जनयुग (1942), रामराज्य (1942), संसार (1943), लोकवाणी (1942), सावधान (1942), हुंकार (1942), और सन्मार्ग (1943)। इनमें से अधिकांश साप्ताहिक हैं, परंतु जनमन के निर्माण में उनका योगदान महत्वपूर्ण रहा है। जहाँ तक पत्र कला का संबंध है वहाँ तक हम स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि तीसरे और चौथे युग के पत्रों में धरती और आकाश का अंतर है। आज पत्रसंपादन वास्तव में उच्च कोटि की कला है। राजनीतिक पत्रकारिता के क्षेत्र में "आज" (1921) और उसके संपादक स्वर्गीय बाबूराव विष्णु पराड़कर का लगभग वही स्थान है जो साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी को प्राप्त है। सच तो यह है कि "आज" ने पत्रकला के क्षेत्र में एक महान् संस्था का काम किया है और उसने हिंदी को बीसियों पत्रसंपादक और पत्रकार दिए हैं।
आधुनिक साहित्य के अनेक अंगों की भाँति हमारी पत्रकारिता भी नई कोटि की है और उसमें भी मुख्यत: हमारे मध्यवित्त वर्ग की सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक औ राजनीतिक हलचलों का प्रतिबिंब भास्वर है। वास्तव में पिछले 140 वर्षों का सच्चा इतिहास हमारी पत्रपत्रिकाओं से ही संकलित हो सकता है। बँगला के "कलेर कथा" ग्रंथ में पत्रों के अवतरणों के आधार पर बंगाल के उन्नीसवीं शताब्दी के मध्यवित्तीय जीवन के आकलन का प्रयत्न हुआ है। हिंदी में भी ऐसा प्रयत्न वांछनीय है। एक तरह से उन्नीसवीं शती में साहित्य कही जा सकनेवाली चीज बहुत कम है और जो है भी, वह पत्रों के पृष्ठों में ही पहले-पहल सामने आई है। भाषाशैली के निर्माण और जातीय शैली के विकास में पत्रों का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है, परंतु बीसवीं शती के पहले दो दशकों के अंत तक मासिक पत्र और साप्ताहिक पत्र ही हमारी साहित्यिक प्रवृत्तियों को जन्म देते और विकसित करते रहे हैं। द्विवेदी युग के साहित्य को हम "सरस्वती" और "इंदु" में जिस प्रयोगात्मक रूप में देखते हैं, वही उस साहित्य का असली रूप है। 1921 ई. के बाद साहित्य बहुत कुछ पत्रपत्रिकाओं से स्वतंत्र होकर अपने पैरों पर खड़ा होने लगा, परंतु फिर भी विशिष्ट साहित्यिक आंदोलनों के लिए हमें मासिक पत्रों के पृष्ठ ही उलटने पड़ते हैं। राजनीतिक चेतना के लिए तो पत्रपत्रिकाएँ हैं ही। वस्तुत: पत्रपत्रिकाएँ जितनी बड़ी जनसंख्या को छूती हैं, विशुद्ध साहित्य का उतनी बड़ी जनसंख्या तक पहुँचना असंभव है।
Sunday, July 19, 2009
पश्चिमी मीडिया के दुष्प्रचार का शिकार भारत
जनवरी में न्यू स्टेट्समेन ने अपने ग्राहकों को यह प्रस्ताव दिया कि आपको नई महाशक्ति के आर्थिक उछाल से लेकर सेक्स क्रांति तक जानने की आवश्यकता हैं इसके पूर्व न्यू साइंटिस्ट ने अधिक मर्यादित तरीके से यह बताने परमाणु शक्ति व सेटेलाईट जैसी अत्याधुनिक तकनीके उपलब्ध हैं, बिल्कि वह उनका उपयोग अपने समाज के निर्धनतम लोगों के विकास के लिए भी कर रहा हैं। उसने इस बात की ओर भी इंगित किया कि भारत के राष्ट्रपति जो कि एक मुस्लिम है, अंतरिक्ष और परमाणु विज्ञान दोनों विषयों के विशेषज्ञ भी हैं।
इस तरह के प्रकाशनों ने भारत से संबंधित उस रुढ़िबद्ध धारणा को चुनौती दी है जिसके अनुसार भारत एक पिछड़ा, अंधविश्वासी एवं गरीबी आदि व्याधियों से ग्रसित राष्ट्र है। परन्तु हमारे पास इस बात के वास्तविक प्रमाण मौजूद हैं कि किस प्रकार नई तकनीक दूरस्थ समुदायों को बजली, प्राथमिक शिक्षा, इन्टरनेट इत्यादि उपलब्ध करवा रही हैं । परन्तु विश्व के कई हिस्सों खासकर गरीब देशों में जो कुछ घटित हो रहा है उसकी एक संतुलित तस्वीर प्रस्तुत करना अभी भी एक गतिशील संघर्ष ही है।
कुछ दिनों पूर्व दी इंडिपेंडेंट ने एक बड़ा लेख छापा था जिसमें यह दावा किया गया था कि भारत को किसी भी यूरोपियन देश की बनिस्बत अत्यधिक ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन के लिए दोषी ठहराया जा सकता है। इस वक्तव्य को अगर इसके वास्तविक स्वरुप में ग्रहण करें तो यह वक्तव्य बहुत ही बेचैन कर देने वाला प्रतीत होता हैं। पर गौर करने पर यह तर्क ही ढेर हो जाता है। तो मैंने समाचार पत्र को इस बिन्दु की ओर इशारा करते हुए लिखा, एक अरब से ज्यादा की जनसंख्या वाले भारत की तुलना किसी एक यूरोपीय देश से नहीं बल्कि संपूर्ण यूरोप से करना चाहिए।
उत्तरी अमेरिका के निवासियों की तुलना में भारत का नागरिक मात्र १० प्रतिशत कार्बन डाई ऑक्साइड उत्पन्न करता हैं। वास्तविकता यह भी है कि एक ब्रिटिश बच्चा, जी-८ देशों के अतिरिक्त अन्य किसी भी देश के बच्चे की बनिस्बत विश्व के प्राकृतिक संसाधनों का ८ गुना ज्यादा उपभोग करता है।
हाल ही में इसी समाचार पत्र ने घोषणा की कि दो बड़े वैज्ञानिकों के अनुसार अधिक जनसंख्या इस ग्रह के लिए खतरा हैं। इन दोनों वैज्ञानिकों का यह दृढ़ विश्वास है कि यह एक साधारण सा सच है, जिसकी राजनीति के कारण या तो अनदेखी की गई है या महत्व नहीं दिया गया। इस आक्षेप के प्रत्युत्तर में मैंने एक लिफाफे के पीछे कुछ गणनाएं की और इस संशोधन के साथ समचार पत्र के कार्यालय को भेजा। अगर आप सारी विश्व की जनसंख्या को अमेरिका में भेज दें तो वहां पर जनसंख्या का घनत्व हालैंड की जनसंख्या के घनत्व जितना होगा और डच निवासियों के पास अपने मनपसंद ट्यूलिप (एक प्रकार के फूल) उगाने के लिए भरपूर स्थान फिर भी शेष रहेगा।
अब भारत के बारे में कुछ अच्छे समाचार ? भारत के कुछ बड़े शहरों में अब यह कानूनन अनिवार्य हो गया है कि वहां पर चलने वाले वाहन सी.एन.जी. ही इंर्धन के रुप में इस्तेमाल कर सकेंगग। इससे श्वास संबंधी रोगों में जबरदस्त कमी आई हैं । पर इस संदर्भ को आपने कभी ब्रिटिश अखबारों या टेलीविजन में होते देखा है? निश्चित तौर पर नहीं, क्योंकि किसी को भी कार उद्योग की उच्चाकांक्षा को चुनौती देने का मौका है ही नहीं।
भारत द्वारा ऐसे व्यापक पर्यावरणीय कानूनों का निर्माण कर पाना इसलिए संभव हो पाया है कि यहां का सर्वोच्य न्यायालय इसमें सीधे हस्तक्षेप करता है। और जिसके पास काफी मात्रा में शक्तियां निहित हैें।
पर्यावरण के मसले पर भी भारत कम राजनीतिक स्तर पर तो एक विश्व नेता है। १९७२ में सम्पन्न संयुक्त राष्ट्रसंघ प्रथम पर्यावरणीय सम्मेलन में भागीदारी करने वाली भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी एक मात्र राष्ट्र प्रमुख थी। १९८१ में आयोजित नए एवं पुर्नसंशोधित की जा सकने वाली ऊर्जा से संबंधित संयुक्त राष्ट्र संध के सम्मेलन में भी जिन तीन राष्ट्रप्रमुखों ने भाग लिया था इंदिरा गांधी उनमें से भी एक थीं। १९७० और १९८० के दशकों में पर्यावरण और विकास को लेकर भारत के सरोकारों में और भी परिपक्वता आई। प्रोजेक्ट टाइगर ओर उनके नए राष्ट्रीय पार्क इसी के उदाहरण हैं। पर रुढ़ीबद्ध धारणा अपनी जगह बनी हुई है। अगर व्यक्ति सामूहिक रुप से इसका विरोध करेंगे तभी इस प्रवृत्ति में परिवर्तन आ सकता है, क्योंकि ज्यादातर लोग तो अनजान हैं और उन्हें निहित स्वार्थो, राजनीतिक स्वार्थ और सामुहिक असंयम द्वारा बरगलाया जाता है।
अगर हम पश्चिम के निवासी स्वयं को इस बात के लिए संतुष्ट कर लेंगे कि तथाकथित विकासशीत विश्व के लोगों को अधिक जनसंख्या, भू-मंडलीय तापमान वृद्धि, महामारियेां और अन्य प्रमुख समस्याओं के लिए दोषी ठहराया जा सकता है तो भी यह उनके (विकासशील देशों) पर ही निर्भर है कि वे अपना रास्ता बदलें, बजाए इसके की हमें उनके लिए कुछ करने की आवश्यकता पड़े। वास्तव में प्रभावशाली उपभोक्तावादी औद्योगिक विश्व और गैर औद्योगिक देशों के कुछ शहरी क्षेत्र हमारे इस वर्तमान भूमंडलीय संकट के लिए जिम्मेदार हैं। उनके लिए इस तरह की रुढ़िबद्ध धारणाओं को बल देकर हमें इस बात का विश्वास दिला देना आसान है, जिससे कि हम सारा दोष उन विकासशील देशों पर मढ़ दें और हम सब अपनी जीवनचर्या में किसी भी प्रकार के परिवर्तन को प्रवृत्त ही न हों।
संरक्षण मुहिम बनी बाघों की मुसीबत
हेलीकॉप्टर से बाघिन पहुँचाने की परियोजना सरिस्का के बाद अब मध्यप्रदेश में भी शुरु की गई है। लेकिन परियोजना का उद्देश्य अपनी मोटी बुद्धि में तो घुसता ही नहीं। इधर प्रदेश में बाघों की वंशवृद्धि के लिए नई तरकीबें आज़मायी जा रही हैं, उधर बाघों की मौतों के बढते ग्राफ़ ने तमाम सवाल भी खड़े कर दिये हैं।
हाल ही में सुरक्षा के सख्त इंतज़ाम के बीच वायुसेना के उड़नखटोले से बाघिन को पन्ना लाया गया। कान्हा नेशनल पार्क में सैलानियों को लुभा रही बाघिन अब अपने पिया के घर पन्ना नेशनल पार्क की रौनक बन गई है। इससे पहले तीन मार्च को बाँधवगढ़ टाइगर रिज़र्व में गुमनाम ज़िन्दगी गुज़ार रही बाघिन सड़क के रास्ते पन्ना पहुँची। पन्ना के बाघ महाशय के लिए पाँच दिनों में दो बाघिन भेजकर वन विभाग योजना की सफ़लता के “दिवा स्वप्न” देख रहा है।
मध्यप्रदेश में आए दिन बाघों के मरने की खबरें आती हैं। पिछले हफ़्ते कान्हा नेशनल पार्क में एक बाघ की मौत हो गई। वन विभाग ने स्थानीय संवाददाताओं की मदद से इस मौत को दो बाघों की लड़ाई का नतीजा बताने में ज़रा भी वक्त नहीं लगाया। वीरान घने जंगल में मरे जानवर की मौत के बारे में बिना किसी जाँच पड़ताल के तुरंत उसे बाघों का संघर्ष करार दे देना ही संदेह की पुष्टि का आधार बनता है । खैर, वन विभाग के जंगल नेताओं और अधिकारियों की चारागाह में तब्दील हो चुके हैं, अब इसमें कहने- सुनने के लिए कुछ भी बाकी नहीं रहा।
पिछले दो माह के दौरान कान्हा में बाघ की मौत की यह तीसरी घटना है। इसी अवधि में बाँधवगढ़ टाइगर रिज़र्व में भी बाघ की मौत हो चुकी है। बुधवार को इंदौर चिड़ियाघर में भी “बाँके” नाम के बाघ ने फ़ेंफ़ड़ों में संक्रमण के कारण एकाएक दम तोड़ दिया। भोपाल के राष्ट्रीय वन विहार में भी अब तक संभवतः तीन से ज़्यादा बाघों की मौत हो चुकी हैं । पन्ना नेशनल पार्क में बाघों की तादाद तेज़ी से घटी है। वर्ष 2005 में यहाँ 34 बाघ थे। इनमें 12 नर और 22 मादा थीं। 2006-2007 की भारतीय वन्यजीव संस्थान देहरादून की गणना में यह आँकड़ा 24 रह गया।
बाघिन को स्थानांतरित करने की मुहिम पर स्थानीय लोगों ने ही नहीं , देश के जानेमाने वन्यजीव विशेषज्ञों ने भी आपत्ति उठाई है। उन्होंने प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधान मुख्य वन संरक्षक को खत लिखकर अभियान रोकने की गुज़ारिश की थी । वन्य संरक्षण से जुड़े विशेषज्ञ बृजेन्द्र सिंह ,वाल्मिक थापर, डॉक्टर उल्हास कारंत, डॉक्टर आर. एस. चूड़ावत, पी. के. सेन, बिट्टू सहगल, फ़तेह सिंह राठौर और बिलिन्डा राइट ने बाघिन को बाँधवगढ़ से पन्ना ले जाने के बाद 7 मार्च को पत्र भेजा था। इसमें राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण और जानेमाने बाघ विशेषज्ञों से इस मुद्दे पर राय मशविरा नहीं करने पर एतराज़ जताया गया है।
विशेषज्ञों ने वन कानून और अपने अनुभव के आधार पर कई अहम मुद्दे रखे हैं, जिनके मुताबिक पन्ना की मौजूदा परिस्थितियाँ बाघिनों के स्थान परिवर्तन के लिए कतई अनुकूल नहीं हैं। साथ ही ऎसा मुद्दा भी उठाया है जो वन विभाग की पूरी कवायद पर ही सवालिया निशान लगाता है। पत्र में पिछले एक महीने में पन्ना टाइगर रिज़र्व में किसी भी बाघ के नहीं दिखने का ज़िक्र किया गया है।
हालाँकि पूरी कवायद फ़िलहाल अँधेरे में तीर चलाने जैसी है। जो सूरते हाल सामने आए हैं, उसके मुताबिक वन विभाग ही आश्वास्त नहीं है कि पन्ना में कोई बाघ बचा भी है या नहीं ….? तमाम विरोध और भारी मशक्कत के बीच दो बाघिनें पन्ना तक तो पहुँच गईं, मगर नेशनल पार्क में नर बाघ होने को लेकर वन विभाग भी संशय में है। दरअसल पार्क का इकलौता नर बाघ काफ़ी दिनों से नज़र नहीं आ रहा है।
प्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक डॉक्टर पी. बी. गंगोपाध्याय का कहना है कि ज़रुरी हुआ तो एक-दो नर बाघ भी पन्ना लाये जा सकते हैं। बाघों की मौजूदगी का पता लगाने के लिए पिछले दिनों भारतीय वन्यजीव संस्थान ने कैमरे लगाये थे , जिनसे पता चला कि पार्क में सिर्फ़ एक ही बाघ बचा है।
बाघ संरक्षण के क्षेत्र में काम कर रहे बाँधवगढ़ फ़ाउंडेशन के अध्यक्ष पुष्पराज सिंह इस वक्त बाघिन के स्थानांतरण को जोखिम भरा मानते हैं । गर्मियों में पन्ना के जलाशय सूख जाने से बाघों को शाकाहारी वन्यजीवों का भोजन मिलना दूभर हो जाता है । ऎसे में वे भटकते हुए गाँवों के सीमावर्ती इलाकों में पहुँच जाते हैं और कभी शिकारियों के हत्थे चढ़ जाते हैं या फ़िर ग्रामीणों के हाथों मारे जाते हैं । कान्हा की बाघिन को पन्ना ले जाने से रोकने में नाकाम रहे वन्यप्राणी प्रेमियों ने अब बाघिन की सुरक्षा को मुद्दा बना लिया है । अधिकारियों की जवाबदेही तय कराने के लिए हाईकोर्ट में अर्ज़ी लगाई गई है ।
जानकारों का ये तर्क एकदम जायज़ लगता है कि पन्ना को सरसब्ज़ बनाने का सपना देखने और इसकी कोशिश करने का वन विभाग को हक तो है, मगर साथ ही यह दायित्व भी है कि वह उन कारणों को पता करे जो पन्ना से बाघों के लुप्त होने का सबब बने । बाहर से लाये गये बाघ-बाघिनों की हिफ़ाज़त के लिहाज़ से भी इन कारणों का पता लगना बेहद ज़रुरी हो जाता है।
मध्यप्रदेश के वन विभाग के अफ़सरों की कार्यशैली के कुछ और नमूने पेश हैं,जो वन और वन्य जीवों के प्रति उनकी गंभीरता के पुख़्ता सबूत हैं -सारे भारत में वेलंटाइन डे को लेकर हर साल बवाल होता है, लेकिन वन विभाग के उदारमना अफ़सरों का क्या कीजिएगा जो वन्य प्राणियों के लिए भी “वेलंटाइन हाउस” बनवा देते हैं। भोपाल के वन विहार के जानवर पर्यटकों की आवाजाही से इस कदर परेशान रहते हैं कि वे अपने संगी से दो पल भी चैन से मीठे बोल नहीं बोल पाते। एकांत की तलाश में मारे-मारे फ़िरते इन जोड़ों ने एक दिन प्रभारी महोदय के कान में बात डाल दी और उन महाशय ने आनन-फ़ानन में तीन लाख रुपए ख़र्च कर इन प्रेमियों के मिलने का ठिकाना “वेलंटाइन हाउस” खड़ा करा दिया । कुछ सीखो बजरंगियों, मुथालिकों, शिव सैनिकों….। प्रेमियों को मिलाने से पुण्य मिलता है और अच्छी कमाई भी होती है।
इन्हीं अफ़सर ने वन्य प्राणियों की रखवाली के लिए वन विहार की ऊँची पहाड़ी पर दस लाख रुपए की लागत से तीन मंज़िला वॉच टॉवर बनवा दिया। भोपाल का वन विहार यूँ तो काफ़ी सुरक्षित है, लेकिन जँगली जानवर होते बड़े चालाक हैं। वन कर्मियों की नज़र बचा कर कभी भालू, तो कभी बंदर, तो कभी मगर भोपालवासियों से मेल मुलाकात के लिए निकल ही पड़ते हैं। तिमँज़िला वॉच टॉवर पर टँगा कर्मचारी बेचारा चिल्लाता ही रह जाता है।
देश में बाघों की संख्या में गिरावट आयी
20वीं सदी में 39 हजार बाघ विलुप्त
कैसे बचेगा मध्यप्रदेश का 'टाइगर स्टेट' का दर्जा
प्रदेश में वयस्क बाघों की संख्या 264 है और बच्चों को मिलाकर इनकी संख्या 336 है। यह भारतीय वन्यजीव संस्थान द्वारा पिछले साल की गई गणना पर आधारित आँकड़े हैं। हालाँकि वन्यजीव विशेषज्ञ अब भी मध्यप्रदेश के जंगलों को बाघों के हिसाब से सर्वश्रेष्ठ मानते हैं
NDलेकिन अब इन सब पर खतरे के बादल मँडरा रहे हैं। ठीक वैसे ही जैसे यहाँ के जंगलों पर संकट है। आजादी के बाद इस प्रदेश में जंगल जहाँ कुल भूभाग का 40 प्रतिशत से ज्यादा थे वहीं अब ये सिमटकर 20 प्रतिशत से भी कम रह गए हैं। यही हाल कुछ शानदार जानवर बाघ का भी हो रहा है। पिछले दशक के अंत तक मध्यप्रदेश में बाघों की संख्या 700 से भी ज्यादा थी। वहीं अब ये घटकर 300 के आसपास रह गए हैं।
प्रदेश में वयस्क बाघों की संख्या 264 है और बच्चों को मिलाकर इनकी संख्या 336 है। यह भारतीय वन्यजीव संस्थान द्वारा पिछले साल की गई गणना पर आधारित आँकड़े हैं। हालाँकि वन्यजीव विशेषज्ञ अब भी मध्यप्रदेश के जंगलों को बाघों के हिसाब से सर्वश्रेष्ठ मानते हैं
बारीकी से देखें तो प्रदेश में वयस्क बाघों की संख्या 264 है और बच्चों को मिलाकर इनकी संख्या 336 है। यह भारतीय वन्यजीव संस्थान द्वारा पिछले साल की गई गणना पर आधारित आँकड़े हैं। हालाँकि वन्यजीव विशेषज्ञ अब भी मध्यप्रदेश के जंगलों को बाघों के हिसाब से सर्वश्रेष्ठ मानते हैं लेकिन इस प्रदेश का वन विभाग और सरकार इस खूबसूरत जानवर को लेकर गंभीर नहीं है और इसे खोने पर तुली है। अब तो मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने भी प्रदेश सरकार से पूछ लिया है कि वो बाघों को बचाने के प्रति कितनी गंभीर है और इस दिशा में उसने क्या कदम उठाया। प्रदेश सरकार को हाईकोर्ट के इस प्रश्न का उत्तर देना अभी बाकी है। कहा जा सकता है कि अगर लापरवाही का यही हाल चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब मध्यप्रदेश अपने 'टाइगर स्टेट' का दर्जा खो बैठेगा। देशभर में हो रही है बाघों की संख्या में कमी : पिछले साल देश में बाघों की संख्या में उल्लेखनीय कमी दर्ज की गई थी। भारत के इतिहास में अब तक सबसे कम बाघ पिछले साल ही दर्ज हुए थे। 1997 में देश में जहाँ 3508 बाघ थे, वहीं दस साल बाद 2008 में इनकी संख्या घटकर मात्र 1411 हो गई। यह अभूतपूर्व कमी थी।
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने तुरंत कदम उठाते हुए देश में 'प्रोजेक्ट टाइगर' परियोजना शुरू करवाई थी। देश में अब 28 'प्रोजेक्ट टाइगर' रिजर्व हैं। इसके सकारात्मक परिणाम भी सामने आए थे और 1997 में बाघों की संख्या साढ़े तीन हजार से भी ज्यादा हो गई
यह संख्या 1972 में हुई बाघ गणना के आँकड़ों से भी कम थी जब देश में इस राष्ट्रीय पशु की संख्या घटकर महज 1827 रह गई थी। उस दौर में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने तुरंत कदम उठाते हुए देश में 'प्रोजेक्ट टाइगर' परियोजना शुरू करवाई थी। देश में अब 28 'प्रोजेक्ट टाइगर' रिजर्व हैं। इसके सकारात्मक परिणाम भी सामने आए थे और 1997 में बाघों की संख्या बढ़कर साढ़े तीन हजार से भी ज्यादा हो गई। 2001-02 में भी ये 3642 बनी रही लेकिन अंततः नई शताब्दी का पहला दशक इस धारीदार जानवर के लिए घातक सिद्ध हुआ और इस दशक के अंत तक ये सिमटकर सिर्फ 1411 रह गए। फरवरी 2008 में बाघों की यह गणना देशभर में भारतीय वन्यजीव संस्थान, देहरादून ने की थी। उल्लेखनीय है कि आजादी के ठीक बाद यानी 1947 में भारत में 40000 बाघ थे। बाघों की इस संख्या को लेकर भारत पूरी दुनिया में प्रसिद्ध था लेकिन बढ़ती आबादी, लगातार हो रहे शहरीकरण, कम हो रहे जंगल और बाघ के शरीर की अंतरराष्ट्रीय कीमत में भारी बढ़ोतरी इस खूबसूरत जानवर की जान की दुश्मन बन गई। सबसे ज्यादा मध्यप्रदेश में घटे : 2008 में हुई गणना से पहले मध्यप्रदेश वन विभाग प्रदेश में 700 से ज्यादा बाघ होने के दावे किया करता था लेकिन इस गणना के बाद उन सब दावों की हवा निकल गई और असली संख्या 264 से 336 सामने आई। भारतीय वन्यजीव संस्थान के अनुसार इस गणना में पता चला है कि सबसे ज्यादा बाघ मध्यप्रदेश में ही कम हुए हैं। कम होने या गायब होने वाले बाघों की संख्या 400 के आसपास है। आशंका जताई गई कि इनमें से ज्यादातर का शिकार कर लिया गया और उनके अंग दूसरे देशों को बेच दिए गए। 2009 इस जानवर के लिए और भी कड़ी परीक्षा वाला साबित होने वाला है क्योंकि शिकारियों की संख्या जहाँ लगातार बढ़ रही है वहीं बाघों की संख्या और उनका इलाका लगातार कम हो रहा है। पन्ना में हुआ घोटाला सामने आया : मध्यप्रदेश का राष्ट्रीय उद्यान पन्ना बाघों के खत्म होने का सबसे पहला प्रतीक बना है। 2007 में वन विभाग ने यहाँ 24 बाघ होने का दावा किया था। पिछले साल भारतीय वन्यजीव संस्थान की टीम ने यहाँ 8 बाघ होने की बात कही लेकिन रघु चंदावत जैसे स्वतंत्र बाघ विशेषज्ञ ने यहाँ सिर्फ एक बाघ की मौजूदगी बताई। बाघिन का यहाँ नामोनिशान तक नहीं मिला। वन्यजीव संस्थान के कैमरों में भी सिर्फ एक बाघ की तस्वीर आई। विशेषज्ञों के अनुसार ये अकेला बाघ यहाँ अपना परिवार नहीं बढ़ा पाएगा और पन्ना भी सरिस्का की राह चलकर अपने बाघों से हाथ धो बैठेगा। अब प्रदेश का वन विभाग सरिस्का की तर्ज पर यहाँ बाँघवगढ़ से एक बाघिन लाकर छोड़ने पर विचार कर रहा है ताकि ये बाघ-बाघिन प्रजनन कर अपनी आबादी बढ़ा सकें और ये राष्ट्रीय उद्यान 'बाघविहीन' होने से बच सके।इस बारे में मध्यप्रदेश के पीसीसीएफ और मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक एचएस पाबला कहते हैं कि हमने मध्यप्रदेश में बाघों की संख्या बढ़ाने की व्यापक कार्ययोजना बनाई है। हम इसके लिए प्रयासरत हैं। पन्ना में बाँधवगढ़ से बाघिन को लाकर छोड़ने की कार्ययोजना पर भी काम चल रहा है। इस साल हम बाघों की संख्या बढ़ाने में जरूर कामयाब होंगे।
विधानसभा में बाघ
यह मामला कांग्रेस के चौधरी राकेश सिंह, डा.गोविंद सिंह और अजय सिंह ने उठाया था।
उनका आरोप था कि बाघों के संरक्षण के लिए केन्द्र सरकार द्वारा पर्याप्त राशि दिए जाने के बावजूद राज्य सरकार गंभीर नहीं है और पन्ना टाइगर रिजर्व में अब एक भी बाघ नहीं बचा है।
वन राज्य मंत्री राजेन्द्र शुक्ला ने स्वीकार किया कि पन्ना टाइगर रिजर्व में पूरे प्रयासों के बावजूद बाघों की संख्या कम होती गई और मई 09 में भारतीय वन्यजीव संस्थान द्वारा किए गए आंकलन में कोई बाघ नहीं पाया गया।
उन्होंने कहा कि विभाग द्वारा पन्ना में बाघों की पुनस्र्थापना के लिए कार्रवाई शुरू कर दी गई है, जिसके तहत दो बाघिन अन्य राष्ट्रीय उद्यान से लाकर बसाई जा चुकी हैं। जबकि चार अन्य बाघ बाघिन को लाने की अनुमति भारत शासन से प्राप्त हो चुकी है।
शुक्ल ने बताया कि पन्ना टाइगर रिजर्व में बाघों की संख्या कम होने का मुख्य कारण वर्षो से बाघ प्रजनन का अभाव तथा नर मादा अनुमात में असंतुलन होना है।
उन्होंने कहा कि यद्यपि भारत शासन द्वारा गठित विशेष जांच समिति द्वारा अवैध शिकार को भी राष्ट्रीय उद्यानों में बाघों के खत्म होने का मुख्य कारण माना गया है।
उन्होंने बताया कि राज्य शासन द्वारा इस राष्ट्रीय उद्यान में बाघों के विलुप्त होने के जैविक तथा प्रशासनिक कारणों का अध्ययन करने के लिए तथा भविष्य में ऐसी परिस्थितियों की पुनरावृत्ति रोकने के लिए समिति का गठन किया गया है।
वन राज्य मंत्री ने इस संबंध में अधिकारियों के खिलाफ तत्काल निलंबन जैसी कार्रवाई करने से इंकार करते हुए कहा कि इस संबंध में गठित समिति की रिपोर्ट आने के बाद कार्रवाई की जाएगी।
शुक्ल ने बताया कि बाघों की गिनती में 18 माह तक के शावकों को शामिल नहीं किया जाता है। इसलिए शावकों की स्थिति बताना संभव नहीं है।
उन्होंने बताया कि केन्द्र सरकार प्रोजक्ट टाइगर के माध्यम से राज्य सरकार को राशि उपलब्ध कराती है और इस वर्ष 60 करोड़ रुपए की राशि मिली है। कांग्रेस के अजय सिंह का कहना था कि वर्ष 2003 में जब भाजपा की सरकार सत्ता में आई थी, तब प्रदेश में बाघों की संख्या 700 थी, लेकिन उचित संरक्षण के अभाव में बाघ कम होते गए और आगे भी यही स्थिति रही तो आने वाली पीढ़ी माफ नहीं करेगी।
सिंह ने कहा कि कुख्यात डकैत ठोकिया 16 माह से भी अधिक समय तक पन्ना टाइगर रिजर्व में रहा और उसी दौरान बाघों की संख्या में भारी कमी आई।
विपक्ष की नेता जमुना देवी ने राज्य सरकार के जवाब को असंतोषपूर्ण करार देते हुए कहा कि सरकार बाघों को बचाने की अपेक्षा दोषी अधिकारियों को बचाने में लगी है। इसी दौरान कांग्रेस सदस्यों ने प्लास्टिक के बैनर ओढ़ लिए, जिसमें बाघ के चित्र के दोनों तरफ मुझे बचाओ मुझे बचाओं लिखा हुआ था।
कांग्रेस सदस्यों ने सरकार पर दोषी अधिकारियों को बचाने का आरोप लगाते हुए सदन से वाकआउट किया। लेकिन विधान सभा अध्यक्ष ईश्वरदास रोहाणी ने कांग्रेस के प्लास्टिक के बैनर ओढ़ने के कृत्य पर अप्रसन्नता जताई।
बाघों की संख्या आधी
आखिर बाघ बचें तो कैसे
Crisis of Agriculture, Poverty and health
Children and Poverty
Health is Wealth
हिंदी पत्रकारिता का आरंभिक काल अब भी स्पष्ट नहीं
लखनऊ। हिंदी पत्रकारिता के आरंभिक काल पर अब भी रहस्य का पर्दा पडा हुआ है और भविष्य में यदि इस बारे में सचित्र प्रमाण मिले तो फिर हिंदी पत्रकारिता दिवस भी बदल सकता है।
यह रहस्योद्घाटन लखनऊ विश्वविद्यालय के लोक प्रशासन विभाग में शोधरत यशोवर्धन तिवारी ने अपने एक शोध पत्र में किया है। उन्होंने सोमवार को यहां एक बातचीत के दौरान बताया कि हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में 30 मई का विशेष महत्व है। वर्ष 1826 में 30 मई को कोलकाता से हिंदी का प्रथम समाचार पत्र उदन्त मार्तण्ड प्रकाशित हुआ था।
उन्होंने बताया कि यह एक बहस का मुद्दा है कि क्या उदन्त मार्तण्ड वास्तव में हिंदी का प्रथम समाचार पत्र था। उन्होंने कहा कि यदि इस प्रश्न का उत्तर नकारात्मक सिद्ध हो जाता है तो हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में बदलाव आवश्यक हो जाएगा। इसके प्रारंभिक काल का पुन: लेखन करना होगा। उन्होंने बताया कि ऐसे साक्ष्य उपलब्ध हैं जो यह संकेत करते हैं कि उदन्त मार्तण्ड के प्रकाशन अर्थात 30 मई 1826 के पहले भी हिंदी में पत्रों का प्रकाशन प्रारम्भ हो गया था।
तिवारी ने बताया कि ले. कर्नल जेम्स टॉड ने अपनी पुस्तक एनल्स एण्ड एन्टीक्विटीज ऑफ राजस्थान और द सेंट्रल एण्ड राजपूत स्टेट्स ऑफ इंडिया में बूंदी रियासत के (अखबार) का उल्लेख किया है। इसमें अखबार के 18 अक्टूबर 1820 के अंक का भी उल्लेख किया गया है।
उन्होंने बताया कि इस ग्रन्थ में एक अन्य स्थान पर बूंदी रियासत के (कोर्ट जर्नल) का उल्लेख मिलता है। टॉड लिखते हैं कि बूंदी नरेश राव राजा बिशन सिंह ने अपने छोटे से साम्राज्य के निरंकुश शासक थे। वह इस मत के थे कि शासित वर्ग, विशेष रूप से नौकरशाही से सम्मान प्राप्त करने के लिए भय एक अनिवार्य प्रोत्साहक का काम करता है।
तिवारी ने बताया कि यदि बूंदी के (कोर्ट जर्नल) का विश्वास किया जाए तो बूंदी नरेश का अपने वित्त मंत्री (जो राज्य के प्रधानमंत्री भी थे) के प्रति बर्ताव निश्चित रुप से मौके पर उपस्थित लोगों के लिए दिलचस्प रहा होगा।
तिवारी ने बताया कि बूंदी के (कोर्ट जर्नल) के प्रकाशन काल तथा उसकी भाषा की कोई जानकारी कर्नल टॉड नहीं देते हैं, लेकिन उक्त अध्याय में वे राव राजा बिशन सिंह के साथ 10 फरवरी 1818 को की गई संधि के संबंध में लिखते हैं। यहां यह भी उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि ले. कर्नल टॉड पश्चिमी राजपूत रियासतों में ईस्ट इंडिया कंपनी के राजनीतिक एजेंट के रूप में तैनात थे। वे यह भी बताते हैं कि राव राजा बिशन सिंह के निधन के पश्चात उनके पुत्र राम सिंह अगस्त 1821 में बूंदी के राजसिंहासन पर आरूढ हुए थे। उन्होंने कहा कि इससे यह तो निश्चित है कि जिस (कोर्ट जर्नल) का टॉड ने वर्णन किया है उसका प्रकाशन फरवरी 1818 से अगस्त 1821 के दौरान हुआ होगा। उन्होंने बताया कि जिस प्रकार यह स्पष्ट नहीं है कि (कोर्ट जर्नल) की भाषा क्या थी, ठीक उसी प्रकार बूंदी के अखबार की भाषा के संबंध में जानकारी अनुपलब्ध है क्योंकि इस सन्दर्भ में भी टॉड का वर्णन मौन है। जहां तक कोर्ट जर्नल की भाषा का प्रश्न है तो उस संबंध में एक मत यह भी है कि चूंकि बूंदी हिंदी भाषी प्रदेश है इसलिए यह मान लेना गलत न होगा कि यह पत्र हिंदी में ही निकलता था।
उदन्त मार्तण्ड के प्रकाशन के पूर्व हिंदी पत्रकारिता की किरणों के प्रस्फुटित होने का एक अन्य संकेत भी उपलब्ध है। उन्होंने बताया कि वेद प्रताप वैदिक द्वारा संपादित (हिंदी पत्रकारिता के विविध आयाम) के द्वितीय खण्ड में बंगाल प्रांत में बैपटिस्ट मिशनरियों द्वारा निकाले गए मासिक पत्र दिग्दर्शन की जानकारी मिलती है।
तिवारी ने बताया कि हुगली जिले में श्रीरामपुर से अप्रैल 1818 में बैपटिस्ट मिशनरियों ने एक मासिक पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया जिसका नाम दिग्दर्शन था। अप्रैल 1818 से अप्रैल 1820 के दौरान दिग्दर्शन के कुल 16 अंक अंग्रेजी और बंगला में प्रकाशित हुए। उन्होंने बताया कि प्रकाशकों ने हिंदी में भी इस मासिक पत्र को निकालने का निर्णय लिया और दिल्ली से आदमी लाकर इसके तीन अंक निकाले गए। उन्होंने बताया कि हिंदी दिग्दर्शन के तीन अंक कब प्रकाशित हुए इसकी जानकारी उपलब्ध नहीं है। चूंकि अंग्रेजी तथा बंगला भाषी दिग्दर्शन के कुल 16 अंक अप्रैल 1818 से 1820 के दौरान प्रकाशित हुए और इसी अवधि में ही हिंदी के अंक निकालने की बात सोची गई तथा तीन अंक निकाले भी गए। इससे यह प्रतीत होता है कि हिंदी मासिक दिग्दर्शन का प्रकाशन काल भी अप्रैल 1818 से अप्रैल 1820
के मध्य का रहा होगा। उन्होंने बताया कि बूंदी के कोर्ट जर्नल वहां से निकले अखबार तथा श्रीरामपुर, हुगली, से प्रकाशित दिग्दर्शन के अंकों की अनुपलब्धता के परिणामस्वरुप आज भी हिंदी पत्रकारिता के आरंभिक काल पर एक आवरण है। हो सकता है कि भविष्य में यदि इनमें से किसी एक का भी सचित्र प्रमाण मिले तो फिर इतिहास को बदलना होगा और शायद हिंदी पत्रकारिता दिवस को भी।
उदंत मार्तण्ड
उदंत मार्तण्ड
उदन्त मार्तण्ड हिंदी का प्रथम समाचार पत्र था । मई, १८२६ ई. में कलकत्ता से एक साप्ताहिक के रूप में इसका प्रकाशन शुरू हुआ। कलकत्ते के कोलू टोला नामक महल्ले के ३७ नंबर आमड़तल्ला गली से जुगलकिशोर सुकुल ने सन् १८२६ ई. में उदंतमार्तंड नामक एर हिंदी साप्ताहिक पत्र निकालने का आयोजन किया। इसके संपादक भी श्री जुगुलकिशोर सुकुल ही थे। वे मूल रूप से कानपुर निवासी थे।यह पत्र पुस्तकाकार (१२x८) छपता था और हर मंगलवार को निकलता था। इसके कुल ७९ अंक ही प्रकाशित हो पाए थे कि डेढ़ साल बाद दिसंबर, १८२७ ई में बंद हो गया।इसके अंतिम अंक में लिखा है- उदन्त मार्तण्ड की यात्रा- मिति पौष बदी १ भौम संवत् १८८४ तारीख दिसम्बर सन् १८२७ ।
आज दिवस लौं उग चुक्यौ मार्तण्ड उदन्त
अस्ताचल को जात है दिनकर दिन अब अन्त ।
उन दिनों सरकारी सहायता के बिना किसी भी पत्र का चलना असंभव था। कंपनी सरकार ने मिशनरियों पत्र को डाक आदि की सुविधा दे रखी थी, परंतु चेष्टा करने पर भी "उदंत मार्तंड" को यह सुविधा प्राप्त नहीं हो सकी। उस समय अंग्रेजी, फारसी और बांग्ला में तो अनेक पत्र निकल रहे थे किंतु हिंदी में एक भी पत्र नहीं निकलता था। इसलिए "उदंत मार्तड" का प्रकाशन शुरू किया गया। इस पत्र में ब्रज और खड़ीबोली दोनों के मिश्रित रूप का प्रयोग किया जाता था जिसे इस पत्र के संचालक "मध्यदेशीय भाषा" कहते थे।
पत्र की प्रारम्भिक विज्ञप्ति
प्रारंभिक विज्ञप्ति इस प्रकार थी - "यह "उदंत मार्तंड" अब पहले-पहल हिंदुस्तानियों के हित के हेत जो आज तक किसी ने नहीं चलाया पर अंग्रेजी ओ पारसी ओ बंगाल में जो समाचार का कागज छपता है उनका सुख उन बोलियों के जानने और पढ़नेवालों को ही होता है। इससे सत्य समाचार हिंदुस्तानी लोग देख आप पढ़ ओ समझ लेयँ ओ पराई अपेक्षा न करें ओ अपने भाषे की उपज न छोड़े। इसलिए दयावान करुणा और गुणनि के निधान सब के कल्यान के विषय गवरनर जेनेरेल बहादुर की आयस से ऐसे साहस में चित्त लगाय के एक प्रकार से यह नया ठाट ठाटा..."।
भारत में अंग्रेज़ों के गुलामी शासन के विरुद्ध शंख-नाद के रूप में ही पत्रों का उदय और विकास हुआ था । भारतीय पत्रकारिता की जननी वंगभूमि ही है । हिंदी पत्रकारिता का जन्म और विकास भी वंगभूमि में ही हुआ । भारतीय भाषाओं में पत्रों के प्रकाशन होने के साथ ही भारत में पत्रकारिता की नींव सुदृढ़ बनी थी । इसी बीच हिंदी पत्रकारिता का भी उदय हुआ । यह उल्लेखनीय बात है कि हिंदी पत्रकारिता का उद्गम स्थान बंगाली भाषा-भाषी प्रदेश (कलकत्ता) रहा । भारत में समाचारपत्रों के प्रकाशन का श्रीगणेश अभिव्यक्ति की आज़ादी की उमंगवाले विदेशी उदारवादियों ने किया । इसके पूर्व ही पश्चिमी देशों तथा यूरोपीय देशों में पत्रकारिता की महत्ता को स्वीकारा गया था। हिक्की या बंकिघम के आरंभिक साहसपूर्ण प्रयासों से भारत में पत्रकारिता की नींव पड़ी थी । वैसे वहाँ शिलालेखों, मौखिक आदि रूपों में सूचना संप्रेषण का दौर बहुत पहले शुरू हुआ था, पर आधुनिक अर्थों में पत्रकारिता का उदय औपनिवेशिक शासन के दौरान ही हुआ । अंग्रेज़ी शिक्षा की पृष्ठभूमि पर ही जेम्स अगस्टस हिकी के आरंभिक प्रयास 'हिकीज़ बंगाल गज़ट' अथवा 'कलकत्ता जेनरल अडवर्टैज़र' के रूप में फलीभूत हुआ था । देशी पत्रकारिता के जनक राजा राममोहन राय माने जाते हैं । भारतीय विचारधारा और दर्शन के मर्मज्ञ विद्वान होने के साथ-साथ प्राचीन-नवीन सम्मिश्रण के एक विशिष्ट व्यक्तित्व के रूप में उभरकर उन्होंने एक स्वस्थ परंपरा का सूत्रपात किया । उस समय तक के भारतीय परिवेश में आधुनिक आध्यात्मिकता का स्वर भरनेवाले रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, रवींद्रनाथ ठाकुर, श्री अरविंद आदि मनीषियों से भारतीय सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में जानजागृति और संप्रेषण माध्यम रूपी पत्रकारिता का उदय हुआ था ।
अंग्रज़ों की स्वार्थपूर्ण शासन के दौर में ही भारतीय भाषा पत्रकारिता की नींव भी पड़ी थी । जन चेतना का संघर्षपूर्ण स्वर उभारने के लक्ष्य से ही पत्रकारिता का उदय हुआ । पत्रकारिता के उद्भव की स्थितियों एवं कारणों का वर्णन करते हुए डॉ. लक्ष्मीकांत पांडेय ने लिखा है – "पत्रकारिता किसी भाषा एवं साहित्य की ऐसी इंद्रधनुषी विधा है, जिसमें नाना रंगों का प्रयोग होने पर भी सामरस्य बना रहता है । पत्रकारिता, जहाँ एक ओर समाज के प्रत्येक स्पंदन की माप है, वहीं विकृतियों की प्रस्तोता, आदर्श एवं सुधार के लिए सहज उपचार । पत्रकारिता जहाँ किसी समाज की जागृति का पर्याय है, वहीं उसमें उठ रही ज्वालामुखियों का अविरल प्रवाह उसकी चेतना का प्रतीक भी है । पत्रकारिता एक ओर वैचारिक चिंतन का विराट फलक है, तो दूसरी ओर भावाकुलता एवं मानवीय संवेदना का अनाविल स्रोत । पत्रकारिता जनता एवं सत्ता के मध्य यदि सेतु है तो सत्ता के लिए अग्नि शिखा और जनता के लिए संजीवनी । अतः स्वाभाविक है कि पत्रकारिता का उदय उन्हीं परिस्थितियों में होता है, जब सत्ता एवं जनता के मध्य संवाद की स्थिति नहीं रहती या फिर जब जनता अंधेरे में और सत्ता बहरेपन के अभिनय में लीन रहती है ।"
ईस्ट इंडिया कंपनी की दमननीति के विरुद्ध आवाज के रूप में स्वाधीनता की प्रबल उमंग ने पत्रकारिता की नींव डाली थी । उसके फलीभूत होने के साथ स्वदेशी भावना का अंकुर भी उगने लगा । कलकत्ता में भारतीय भाषा पत्रकारिता के उदय से इन भावनाओं को उपयुक्त आधार मिला था । इस परंपरा में कलकत्ता के हिंदी भाषियों के हृदय में भी पत्रकारिता की उमंगे उगने लगीं । अपनी भाषा के प्रति अनुराग और जनजागृति लाने के महत्वकांक्षी पं. जुगल किशोर शुक्ल के साहसपूर्ण आरंभिक प्रयासों से हिंदी पत्रकारिता की नींव पड़ी । कलकत्ते के कोलू टोला नामक महल्ले के 37 नंबर आमड़तल्ला गली से जुगल किशोर शुक्ल ने सन् 1826 ई. में उदंतमार्तंड नामक एर हिंदी साप्ताहिक पत्र निकालने का आयोजन किया । यहाँ यह भी विवेचनीय बात है कि 'उदंत मार्तंड' से पहले भी हिंदी पत्रों के प्रकाशन होने के संदर्भ में कई तर्क हैं । पर इन तमाम तर्कों के बावजूद प्रथम मौलिक हिंदी पत्र के रूप में कई इतिहासकारों द्वारा 'उदंत मार्तंड' ही मान्य है । 30 मई, 1826 हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में उल्लेखनीय तिथि है जिस दिन सर्वथा मौलिक प्रथम हिंदी पत्र के रूप में 'उदंत मार्तंड' का उदय हुआ था । इसके संपादक और प्रकाशक भी कानपुर के जुगल किशोर ही थे । साप्ताहिक 'उदंत मार्तांड' के मुख्य पृष्ठ पर शीर्षक के नीच जो संस्कृत की पंक्तियाँ छपी रहती थीं उनमें प्रकाशकीय पावन लक्ष्य निहित था । पंक्तियाँ यों थीं –
"दिवा कांत कांति विनाध्वांदमंतं
न चाप्नोति तद्वज्जागत्यज्ञ लोकः ।
समाचार सेवामृते ज्ञत्वमाप्तां
न शक्नोति तस्मात्करोनीति यत्नं ।।"
महत्वकांक्षा और ऊँचे आदर्श से पं. जुगल किशोर ने 'उदंत मार्तंड' का प्रकाशन आरंभ किया था, पर सरकारी सहयोग के अभाव में, ग्राहकों की कमी आदि प्रतिकूल परिस्थितियों में 4 दिसंबर, 1827 को ही लगबग डेढ़ साल की आयु में हिंदी का प्रथम पत्र का अंत जिस संपादकीय उद्घोष के साथ समाप्त हुआ, वह आज भी हिंदी पत्रकारिता के संघर्षपूर्ण अस्तित्व के प्रतीकाक्षरों की पंक्तियों के रूप में उल्लेखनीय हैं–
"आज दिवस लौं उग चुक्यौ मार्तंड उदंत ।
अस्ताचल को जात है दिनकर दिन अंत ।।"
पं. जुगल किशोर शुक्ल ने अपनी आंतरिक व्यथा को समेट कर उक्त पंक्तियों की अभिव्यक्ति दी थी। इसके बाद कई प्रयासों से धीरे-धीरे हिंदी पत्रों का प्रकाशन-विकास होता रहा । इसी परंपरा में जून, 1854 में कलकत्ते से ही श्याम सुंदर सेन नामक बंगाली सज्जन के संपादन में हिंदी का प्रथम दैनिक पत्र प्रकाशित हुआ था । हिंदी पत्रकारिता की जन्मभूमि होने का गौरव-चिह्न कलकत्ते के मुकुटमणि के रूप में सदा प्रेरणा की आभा देते हुए हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में उल्लेखनीय है । कलकत्ता से बाहर हिंदी प्रदेश से निकलनेवाला हिंदी पत्र 'बनारस अख़बार' था, जिसका प्रकाशन 1845 ई. में काशी में आरंभ हुआ था । हिंदी पत्रकारिता पर 1857 के प्रथम स्वाधीनता-संग्राम का भी पर्याप्त प्रभाव पड़ा था ।
आरंभिक हिंदी पत्रकारिता के उन्नायकों के संदर्भ में डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र के विचार महत्वपूर्ण एवं स्मरणीय हैं – "स्मरणीय है कि हिंदी-पत्रकारिता के आदि उन्नायकों का आदर्श बड़ा था, किंतु साधन-शक्ति सीमित थी । वे नई सभ्यता के संपर्क में आ चुके थे और अपने देश तथा समाज के लोगों को नवीनता से संपृक्त करने की आकुल आकांक्षा रखते थे । उन्हें न तो सरकारी संरक्षण और प्रोत्साहन प्राप्त था और न तो हिंदी-समाज का सक्रिय सहयोग ही सुलभ था । प्रचार-प्रसार के साधन अविकसित थे । संपादक का दायित्व ही बहुत बड़ा था क्योंकि प्रकाशन-संबंधी सभी दायित्व उसी को वहन करना पड़ता था । हिंदी में अभी समाचारपत्रों के लिए स्वागत भूमि नहीं तैयार हुई थी । इसलिए इन्हें हर क़दम पर प्रतिकूलता से जूझना पड़ता था और प्रगति के प्रत्येक अगले चरण पर अवरोध का मुक़ाबला करना पड़ता था । तथापि इनकी निष्ठा बड़ी बलवती थी । साधनों की न्यूनता से इनकी निष्ठा सदैव अप्रभावित रही । आर्थिक कठिनाइयों के कारण हिंदी के आदि पत्रकार पं. जुगल किशोर शुक्ल ने 'उदंत मार्तंड' का प्रकाशन बंद कर दिया था किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि आर्थिक कठिनाइयों ने उनकी निष्ठा को ही खंडित कर दिया था । यदि उनकी निष्ठा टूट गई होती तो कदाचित् पुनः पत्र-प्रकाशन का साहस न करते । हम जानते हैं कि पं. जुगल किशोर शुक्ल ने 1850 में पुनः 'सामदंत मार्तंड' नाम का एक पत्र प्रकाशित किया था । इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रतिकूल परिस्थिति से लड़ने का उनमें अदम्य उत्साह था । उस युग के पत्रकारों की यह एक सामान्य विशेषता थी । युगीन-चेतना के प्रति ये पत्र सचेत थे और हिंदी-समाज तथा युगीन अभिज्ञता के बीच सेतु का काम कर रहे थे ।"
हिंदी पत्रकारिता के उद्भव और तत्पश्चात् के दिनों, परिस्थितियों का विवेचन करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि हिंदी पत्रकारिता के लिए आरंभिक दिन उत्साहवर्धक न रहने के बावजूद निष्ठावान पत्राकारों की श्रेष्ठ महत्वकांक्षा ने आगे की पीढ़ी में दृढ़-चेतना जगाई । परिणामतः हिंदी पत्रकारिता का विकास आरंभिक दिनों में भले ही मंद गति से हुआ और आगे के दिनों में तीव्रगति से विकास भी सुनिश्चित हुआ । आज हिंदी पत्रकारिता शिखर स्थिति में रहने के दावे पर आपत्ति होने पर भी यह निर्विवाद बात है कि अद्यतन वैज्ञानिक उपलब्धियों के सहारे उत्थान की सीढ़ियों पर वह ज़रूर अग्रसर है। कई हिंदी पत्र-पत्रिकाएँ आज उपग्रहीय समाचार व्यवस्था से जुड़ी हैं और कई हिंदी पत्रों के इंटर्नेट संस्करण भी आज उपलब्ध हैं । जहाँ हिंदी समाचारपत्रों के वेब पोर्टलों के माध्यम से अद्यतन समाचार पाठकों को सुलभ होते रहते हैं, वहीं दूरदर्शन के विभिन्न चैनलों के माध्यम से सनसनीखेज खबरें परोसी जाती हैं । आज हिंदी में भी कई ब्लॉग विकसित हुए हैं, जिनमें से कुछ ब्लॉग समाचार माध्यमों के रूप में भी अपनी भूमिका अदा करते हुए नागरिक पत्रकारिता के विकास की स्थिति को दर्शान के साथ-साथ निश्चय ही यह साबित कर रहे हैं कि समाचार प्रसारण की व्यवस्था की गति में अभूतपूर्व ढंग से विकास हुआ है । अमरीका के किसी भी कोने में घटने वाली घटना वेबसाइटों में दर्शन देना ही नहीं, भारत के भी कई छोटे शहरों या गाँवों में घटनेवाली घटनाओं की खबरें भी हमें टी.वी. चैनलों के माध्यम से मिनटों में मिलना इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है । हिंदी पत्रकारिता, हिंदी वेबसाइट या हिंदी चैनल भी ऐसी ही गति से आगे बढ़ रही हैं । निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि हिंदी पत्रकारिता अपने उद्भव काल से ही गतिशील चेतना की स्वामी बनकर प्रगति-पथ पर आगे बढ़ती रही है ।
पत्रकारिता
लगता है कि विश्व में पत्रकारिता का आरंभ सन 131 ईस्वी पूर्व रोम href="http://hi.wikipedia.org/wiki/रà¥à¤®">रोम में हुआ था। उस साल पहला दैनिक समाचार-पत्र निकलने लगा। उस का नाम था – “Acta Diurna” (दिन की घटनाएं). वास्तव में यह पत्थर की या धातु की पट्टी होता था जिस पर समाचार अंकित होते थे । ये पट्टियां रोम के मुख्य स्थानों पर रखी जाती थीं और इन में वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति, नागरिकों की सभाओं के निर्णयों और ग्लेडिएटरों की लड़ाइयों के परिणामों के बारे में सूचनाएं मिलती थीं।
मध्यकाल में यूरोप href="http://hi.wikipedia.org/wiki/यà¥à¤°à¥à¤ª">यूरोप के व्यापारिक केंद्रों में ‘सूचना-पत्र ‘ निकलने लगे। उन में कारोबार, क्रय-विक्रय और मुद्रा के मूल्य में उतार-चढ़ाव के समाचार लिखे जाते थे। लेकिन ये सारे ‘सूचना-पत्र ‘ हाथ से ही लिखे जाते थे।
15वीं शताब्दी के मध्य में योहन गूटनबर्ग ने छापने की मशीन का आविष्कार किया। असल में उन्होंने धातु के अक्षरों का आविष्कार किया। इस के फलस्वरूप किताबों का ही नहीं, अख़्बारों का भी प्रकाशन संभव हो गया।
16वीं शताब्दी के अंत में, यूरोप के शहर स्त्रास्बुर्ग में, योहन कारोलूस नाम का कारोबारी धनवान ग्राहकों के लिये सूचना-पत्र लिखवा कर प्रकाशित करता था। लेकिन हाथ से बहुत सी प्रतियों की नक़ल करने का काम महंगा भी था और धीमा भी। तब वह छापे की मशीन ख़रीद कर 1605 में समाचार-पत्र छापने लगा। समाचार-पत्र का नाम था ‘रिलेशन’। यह विश्व का प्रथम मुद्रित समाचार-पत्र माना जाता है।
छापे की पहली मशीन भारत में 1674 में पहुंचायी गयी थी। मगर भारत का पहला अख़बार इस के 100 साल बाद, 1776 में प्रकाशित हुआ। इस का प्रकाशक ईस्ट इंडिया कंपनी" href="http://hi.wikipedia.org/wiki/à¤à¤¸à¥à¤_à¤à¤à¤¡à¤¿à¤¯à¤¾_à¤à¤à¤ªà¤¨à¥">ईस्ट इंडिया कंपनी का भूतपूर्व अधिकारी विलेम बॉल्ट्स था। यह अख़बार स्वभावतः अंग्रेज़ी भाषा में निकलता था तथा कंपनी व सरकार के समाचार फैलाता था।
सब से पहला अख़बार, जिस में विचार स्वतंत्र रूप से व्यक्त किये गये, वह 1780 में जेम्स ओगस्टस हीकी का अख़बार ‘बंगाल गज़ेट (अब तक बनाया नहीं)" href="http://hi.wikipedia.org/w/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%B2_%E0%A4%97%E0%A4%9C%E0%A4%BC%E0%A5%87%E0%A4%9F&action=edit&redlink=1">बंगाल गज़ेट’ था। अख़बार में दो पन्ने थे, और इस में ईस्ट इंडिया कंपनी के वरिष्ठ अधिकारियों की व्यक्तिगत जीवन पर लेख छपते थे। जब हीकी ने अपने अख़बार में गवर्नर की पत्नी का आक्षेप किया तो उसे 4 महीने के लिये जेल भेजा गया और 500 रुपये का जुरमाना लगा दिया गया। लेकिन हीकी शासकों की आलोचना करने से पर्हेज़ नहीं किया। और जब उस ने गवर्नर और सर्वोच्च न्यायाधीश की आलोचना की तो उस पर 5000 रुपये का जुरमाना लगाया गया और एक साल के लिये जेल में डाला गया। इस तरह उस का अख़बार भी बंद हो गया।
सन् 1790 के बाद भारत में अंग्रेज़ी भाषा की और कुछ अख़बार स्थापित हुए जो अधिक्तर शासन के मुखपत्र थे। पर भारत में प्रकाशित होनेवाले समाचार-पत्र थोड़े-थोड़े दिनों तक ही जीवित रह सके।
1819 में भारतीय भाषा में पहला समाचार-पत्र प्रकाशित हुआ था। वह बंगाली भाषा का पत्र – ‘संवाद कौमुदी (अब तक बनाया नहीं)" href="http://hi.wikipedia.org/w/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6_%E0%A4%95%E0%A5%8C%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%80&action=edit&redlink=1">संवाद कौमुदी’ (बुद्धि का चांद) था। उस के प्रकाशक राजा राममोहन राय" href="http://hi.wikipedia.org/wiki/राà¤à¤¾_राममà¥à¤¹à¤¨_राय">राजा राममोहन राय थे।
1822 में गुजराती href="http://hi.wikipedia.org/wiki/à¤à¥à¤à¤°à¤¾à¤¤à¥">गुजराती भाषा का साप्ताहिक ‘मुंबईना समाचार’ प्रकाशित होने लगा, जो दस वर्ष बाद दैनिक हो गया और गुजराती के प्रमुख दैनिक के रूप में आज तक विद्यमान है। भारतीय भाषा का यह सब से पुराना समाचार-पत्र है।
1826 में ‘उदंत मार्तण्ड" href="http://hi.wikipedia.org/wiki/à¤à¤¦à¤à¤¤_मारà¥à¤¤à¤£à¥à¤¡">उदंत मार्तण्ड’ नाम से हिंदी href="http://hi.wikipedia.org/wiki/हिà¤à¤¦à¥">हिंदी के प्रथम समाचार-पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। यह साप्ताहिक पत्र 1827 तक चला और पैसे की कमी के कारण बंद हो गया।
1830 में राममोहन राय ने बड़ा हिंदी साप्ताहिक ‘बंगदूत (अब तक बनाया नहीं)" href="http://hi.wikipedia.org/w/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%A6%E0%A5%82%E0%A4%A4&action=edit&redlink=1">बंगदूत’ का प्रकाशन शुरू किया। वैसे यह बहुभाषीय पत्र था, जो अंग्रेज़ी, बंगला, हिंदी और फारसी में निकलता था। यह कोलकाता से निकलता था जो अहिंदी क्षेत्र था। इस से पता चलता है कि राममोहन राय हिंदी को कितना महत्व देते थे।
1833 में भारत में 20 समाचार-पत्र थे, 1850 में 28 हो गए, और 1953 में 35 हो गये। इस तरह अख़बारों की संख्या तो बढ़ी, पर नाममात्र को ही बढ़ी। बहुत से पत्र जल्द ही बंद हो गये। उन की जगह नये निकले। प्रायः समाचार-पत्र कई महीनों से ले कर दो-तीन साल तक जीवित रहे।
उस समय भारतीय समाचार-पत्रों की समस्याएं समान थीं। वे नया ज्ञान अपने पाठकों को देना चाहते थे और उसके साथ समाज-सुधार की भावना भी थी। सामाजिक सुधारों को लेकर नये और पुराने विचारवालों में अंतर भी होते थे। इस के कारण नये-नये पत्र निकले। उन के सामने यह समस्या भी थी कि अपने पाठकों को किस भाषा में समाचार और विचार दें। समस्या थी – भाषा शुद्ध हो या सब के लिये सुलभ हो? 1846 में राजा शिव प्रसाद ने हिंदी पत्र ‘बनारस अख़बार’ का प्रकाशन शुरू किया। राजा शिव प्रसाद (अब तक बनाया नहीं)" href="http://hi.wikipedia.org/w/index.php?title=%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%BE_%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%B5_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A6&action=edit&redlink=1">राजा शिव प्रसाद शुद्ध हिंदी का प्रचार करते थे और अपने पत्र के पृष्ठों पर उन लोगों की कड़ी आलोचना की जो बोल-चाल की हिंदुस्तानी के पक्ष में थे। लेकिन उसी समय के हिंदी लेखक भारतेंदु हरिशचंद्र (अब तक बनाया नहीं)" href="http://hi.wikipedia.org/w/index.php?title=%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A5%87%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%81_%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A4%9A%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0&action=edit&redlink=1">भारतेंदु हरिशचंद्र ने ऐसी रचनाएं रचीं जिन की भाषा समृद्ध भी थी और सरल भी। इस तरह उन्होंने आधुनिक हिंदी की नींव रखी और हिंदी के भविष्य के बारे में हो रहे विवाद को समाप्त कर दिया। 1868 में भरतेंदु हरिशचंद्र ने साहित्यिक पत्रिका ‘कविवच सुधा’ निकालना प्रारंभ किया।
1854 में हिंदी का पहला दैनिक ‘समाचार सुधा वर्षण’ निकला।